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१२. धर्मानुप्रेक्षा
दुष्टा ।६। स्थावरैनसैः पिपीलिकामत्कुणादिभिः सहितोन्मिश्रा । ७ । अधिकवितस्तिमात्राया भूमेरधिकाया ग्रहणं प्रमाणातिरेकदोषः । ८ । शीतवातातपाद्युपद्रवसहिता वसतिरियं निन्दा कुर्वतो वसनं धूमदोषः । ९ । निर्वाता विशाला नात्युष्णा शोभनेयमिति तत्रानुराग इङ्गालदोषः । एवमेतैरुद्रमादिदोषैरनुपहता वसतिः शुद्धा, तस्याः दुःप्रमार्जनादिसंस्काररहितायाः जीवसंभवरहितायाः शय्यारहिताया वसत्याः अन्तर्बहिर्वा वसति यतिः विविक्तशय्यासनरतः। अथ का विविक्ता वसतिरित्यत्राह । “सुण्णघरगिरिगुहारुक्खमूलआगंतुगारदेवकुले । अकदप्पन्भारारामघरादीणि य विवित्ताई ॥" शून्यं गृहं गिरेगुहावृक्षमूलं आगन्तुकानां वेश्म देवकुलं शिक्षागृहं केनचिदकृतम् अकृतप्राम्भारं कथ्यते । आरामगृहं क्रीडार्थमायातानामावासाय कृतम् एता विविक्ता वसतयः । अत्र वसतेर्दोषाभावमाचष्टे ॥ "कलहो बोलो झंझा वामोहो संकरो ममत्ति च । झाणज्झयणविघादो णत्थि विवित्ताए वसधीए॥" कलहो ममेदं च वसतिस्तवेदमिति कलहो न केनचित् अन्यजनरहितत्वात् , बोलो शन्दबहुलता, झंझा संक्लेशः, व्यामोहो वेचित्त्यम् , संकरम् अयोग्यैरसंयतैः सह मिश्रणम् , ममत्वं ममेदं नास्ति, यानस्य अध्ययनस्य च व्याघातः । इति विविक्तशयनासनतपोविधानम् ॥ ४४९ ॥ अथ कायक्लेशतपोविधानं प्रतनोति
दुस्सह-उवसग्ग-जई आतावण-सीय-वाय-खिण्णो वि ।
जो णवि खेदं गच्छदि काय-किलेसो तवो तस्स ॥ ४५०॥ [छाया-दुस्सहोपसर्गजयी आतापनशीतवातखिन्नः अपि । यः नैव खेदं गच्छति कायक्लेशं तपः तस्य ॥1 तस्य निर्ग्रन्थमुनेः कायक्लेशः कायस्य शरीरस्य उपलक्षणात् इन्द्रियादेश्च क्लेशः क्लेशनं दमनं कदर्थनं तपो भवति । तस्य कस्य । यो मुनिः खेदं श्रमं चित्तक्लेशं मानसे खेदखिन्नत्वं नापि गच्छति नैव प्राप्नोति । कीदृग्विधो मुनिः । आतापनशीत
गृहस्थके द्वारा दी गई वसतिका दायक दोषसे दूषित है । स्थावर जीवों और त्रस जीवोंसे युक्त वसतिका उन्मिश्र दोषसे दूषित है । मुनियोंको जितने वितस्ति प्रमाण जमीन ग्रहण करनी चाहिये उससे अधिक जमीन ग्रहण करना प्रमाणातिरेक दोष है। इस वसतिकामें हवा ठंड या गर्मी वगैरहका उपद्रव है ऐसी बुराई करते हुए वसतिका में रहना धूम दोष है । यह वसतिका विशाल है, इसमें वायुका उपद्रव नहीं है, यह बहुत अच्छी है, ऐसा मानकर उसके ऊपर राग भाव रखना इंगाल दोष है । इस प्रकार इन उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित वसतिका मुनियोंके योग्य है। ऐसी वसतिकामें रहनेवाला मुनि विविक्त शय्यासन तपका धारी है ॥ ४४८-४९ ॥ आगे कायक्लेश तपको कहते हैं । अर्थ-दुःसह उपसर्गको जीतनेवाला जो मुनि आतापन, शीत वात वगैरहसे पीड़ित होनेपर भी खेदको प्राप्त नहीं होता, उस मुनिके कायक्लेश नामका तप होता है || भावार्थ-तपस्वी मुनि ग्रीष्म ऋतुमें दुःसह सूर्यकी किरणोंसे तपे हुए शिलातलोंपर आतापन योग धारण करते हैं । तथा शीत ऋतुमें अर्थात् पौष
और माघके महीनेमें नदी समुद्र आदिके किनारे पर अथवा वनके बीचमें किसी खुले हुए स्थानपर योग धारण करते हैं । और वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे योग धारण करते हैं, जहाँ वर्षा रुक जानेपर भी पत्तोंसे पानी टपकता रहता है और झंझा वायु बहती रहती है । इस तरह गर्मी सर्दी और वर्षा का असह्य कष्ट सहनेपर भी उनका चित्त कभी खिन्न नहीं होता। इसके सिवाय वे देव मनुष्य तिर्यश्च और अचेतनके द्वारा किये हुए दुःसह उपसर्गोको और भूख प्यासकी परीषहको भी सहते हैं, उन मुनिके कायक्लेश नामका तप होता है । चारित्रसार आदि ग्रन्थोंमें . भी कहा है-वृक्ष के मूलमें ध्यान लगाना, निरभ्र आकाशके नीचे आतापन योग धारण करना, वीरासन, कुक्कुटासन, पर्यङ्कासन आदि अनेक प्रकारके आसन लगाना, अपने शरीरको संकुचित करके शयन करना, ऊपरको मुख
१लग तउ (ओ?)।
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