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________________ ३२४ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४३१ "रतिरिय देसअयदा उकस्सेणच्चुदो ति णिग्गंथा । णर अयददेसमिच्छा गेवेज्जंतो त्ति गच्छति ॥ सव्वट्टो त्ति सुदिट्ठी महत्वई भोगभूमिजा सम्मा । सोहम्मदुगं मिच्छा भवणतियं तावसा य वरं ॥ चरया य परिव्वाजा बम्होत्तरपदो त्ति आजीवा । अणुदिअणुत्तरादो चुदा ण केसवपदं जंति ॥" त्ति । तथा चोक्तं च । “प्रापद्दैवं तव नुतिपदेर्जीवकेनोपदिष्टैः, पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम् । कः संदेहो यदुपलभते वासव श्रीप्रभुत्वं, जल्पन् जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कारचक्रम् ॥” “अर्हच्चरण सपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् । मेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥” तथा । " धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो धर्म बुधाश्चिन्वते, धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं धर्माय तस्मै नमः । धर्मान्नास्ति परः सुहृद् भवभृतां धर्मस्य मूलं दया, धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं हे धर्म मां पालय ॥” “सुकुलजन्मविभूतिरनेकधा प्रियसमागमसौख्यपरंपरा । नृपकुले गुरुता विमलं यशो भवति धर्मतरोः फलमीदृशम् ॥” इति ॥ ४३१ ॥ देव होते हैं । गाथामें आये हुए 'वि' शब्दसे इतना अर्थ और लेना चाहिये कि उत्तम धर्मसे युक्त मनुष्य मरकर उत्तम देव होता है । अर्थात् श्रावकधर्मका पालन करनेवाला मनुष्य मरकर सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिक आदि जातिका कल्पवासी देव होता है । तथा मुनिधर्मका पालक मनुष्य मरकर सौधर्मस्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जन्म लेता है । अथवा सफल कर्मोंको नष्ट करके सिद्धपदको प्राप्त करता है । तथा सम्यक्त्व व्रत आदि उत्तम धर्मका पालक चाण्डाल भी मरकर उत्तम देव होजाता है। कौन २ मनुष्य और तिर्यञ्च मरकर उत्कृष्टसे कहाँ २ उत्पन्न होते हैं, इसका वर्णन त्रिलोकसारमें इस प्रकार किया है- देशव्रती और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यश्च मरकर अधिकसे अधिक सोलहवें स्वर्ग तक जन्म लेते हैं । द्रव्यलिंगी, किन्तु भावसे असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा देशव्रती अथवा मिथ्यादृष्टि मनुष्य ग्रैवेयक तक जन्म लेते हैं || सम्यग्दृष्टि महाव्रती मरकर सर्वार्थसिद्धि तक जन्म लेते हैं । सम्यग्दृष्टि भोगभूमिया जीव मरकर सौधर्मयुगल में जन्म लेते हैं और मिथ्यादृष्टि भोगभूमिया जीव मरकर भवनत्रिकमें जन्म लेते हैं । तथा उत्कृष्ट तापसी भी मरकर भवनत्रिक जन्म लेते हैं | नंगे तपखी और परिव्राजक ब्रह्मोत्तर स्वर्ग तक जन्म लेते हैं । आजीवक सम्प्रदायवाले अच्युत खर्ग तक जन्म लेते हैं । अनुदिश और अनुत्तरोंसे च्युत हुए जीव नारायण 1 प्रतिनारायण नहीं होते ॥” वादिराजसूरिने एकीभावस्तोत्रमें नमस्कार मंत्रका माहात्म्य बतलाते हुए कहा है- 'हे जिनवर, मरते समय जीवन्धरके द्वारा सुनाये गये आपके नमस्कार महामंत्र के प्रभावसे पापी कुत्ता भी मरकर देव गतिके सुखको प्राप्त हुआ । तब निर्मल मणियोंके द्वारा नमस्कार मंत्रका जप करने वाला मनुष्य यदि इन्द्रकी सम्पदाको प्राप्त करे तो इसमें क्या सन्देह है ।' स्वामी समन्त मद्रने जिनपूजाका माहात्म्य बतलाते हुए श्री रत्नकरंड श्रावकाचारमें कहा है- 'राजगृही नगरीमें आनन्दसे मत होकर भगवान महावीरकी पूजाके लिये एक फूल लेकर जाते हुए मेढ़कने महात्माओं को भी बतला दिया कि अर्हन्त भगवानके चरणोंकी पूजाका क्या माहात्म्य है ।" धर्मका माहात्म्य बतलाते हुए किसी कविने कहा है—“धर्म सब सुखोंकी खान है और हित करने वाला है । (इसीसे ) बुद्धिमान लोग धर्मका संचय करते हैं । धर्मसे ही मोक्ष सुखकी प्राप्ति होती है । उस धर्मको नमस्कार हो । संसारी प्राणियोंका धर्मसे बढ़कर कोई मित्र नहीं । धर्म का मूल दया है । अतः मैं प्रतिदिन अपना चित्त धर्ममें लगाता हूँ । हे धर्म ! मेरी रक्षा कर ॥" और भी कहा है-अच्छे कुलमें जन्म, अनेक प्रकारकी विभूति, प्रिय जनोंका समागम, लगातार सुखकी प्राप्ति, राजघरानेमें आदर सन्मान और निर्मल यश, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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