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-३९५] १२. धर्मानुप्रेक्षा
२९३ प्राणैर्वियोजयत्यपि तितिक्षा कर्तव्या, दिष्ट्या च मां प्राणैर्वियोजयति, मदधीनाद्धर्मान भ्रंशयतीति । किंचान्यन्ममैवापराधोऽयं पुराचरितं तन्महहःकर्म तत्फलमिदमाकोशवचनादि निमित्तमात्रं परोऽयमति सहितव्यमिति । उक्तं च । 'आक्रुष्टोऽहं हतो नैव हतो नैव द्विधाकृतः । द्विधाकृन्न हतो धर्मः प्रतीदं शत्रुमित्रतः । इत्युत्तमः क्षमाधर्मः ॥ ३९४ ॥ अथ उत्तममार्दवमाह
उत्तम-णाण-पहाणो उत्तम-तवयरण-करण-सीलो वि ।
अप्पाणं जो हीलदि मद्दवरयणं भवे तस्स ॥ ३९५ ॥ [छाया-उत्तमज्ञानप्रधानः उत्तमतपश्चरणकरणशीलः अपि । आत्मानं यः हेलयति मार्दवरत्नं भवेत् तस्य ॥] तस्य मुनेः मार्दवरत्नं मार्दवाख्यमुत्तमनिर्मलधर्मरत्नं भवेत् । तस्य कस्य । यः साधुः आत्मानं स्वयं हीलति हेलनाम् उपसर्ग आनेपर भी जो क्षमा भावसे विचलित नहीं होते वही उत्तम क्षमाके धारी होते हैं । आशय यह है कि मुनि जन शरीरको बनाये रखनेके लिये आहारकी खोजमें गृहस्थोंके घर जाते हैं। उस समय दुष्ट मनुष्य उन्हें देखकर हंसते हैं, गाली बकते हैं, अपमान करते हैं, मार पीट करते हैं । किन्तु क्रोध उत्पन्न होनेके इन सब कारणोंके होते हुए भी मनमें जरा भी कलुषताका न आना उत्तम क्षमा है। ऐसे समयमें मुनिको उत्तम क्षमा धर्मकी अच्छाई और क्रोधकी बुराइयोंका विचार करना चाहिये। उत्तम क्षमा व्रत और शीलकी रक्षा करने वाली है, इस लोक और परलोकमें दुःखोंसे बचाती है, उत्तम क्षमाशील मनुष्यका सब लोक सन्मान करते हैं। इसके विपरीत क्रोध धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका नाशक है । ऐसा सोचकर मुनिको क्षमा धारण करना चाहिये । तथा यदि कोई मनुष्य अपशब्द कहता है तो उस समय यह विचारना चाहिये कि ये मनुष्य मुझमें जो दोष बतलाता है वे दोष मुझमें हैं या नहीं ? यदि हैं तो वह झूठ क्या कहता है ! और यदि नहीं है तो वह अज्ञानसे ऐसा कहता है, यह सोचकर उसे क्षमा कर देना चाहिये। और भी यदि कोई पीठपीछे गाली देता हो तो विचारना चाहिये कि मूर्योका खभाव गाली बकनेका होता ही है। वह तो मुझे पीठपीछे ही गाली देता है, मूर्ख लोग तो मुंहपर भी गाली बकते हैं । अतः वह क्षमाके योग्य हैं । यदि कोई मुँहपर ही अपशब्द कहे तो विचारना चाहिये कि चलो, यह गाली ही बककर रह जाता है, मारता तो नहीं है । मूर्ख लोग तो मार भी बैठते हैं अतः वह क्षम्य है । यदि कोई मारने लगे तो विचारे, यह तो मुझे मारता ही है, जान तो नहीं लेता । मूर्ख लोग तो जान तक लेडालते हैं। अतः क्षम्य है। यदि कोई जान लेने लगे तो विचारे, यह मेरी जान ही तो लेता है, धर्म तो भ्रष्ट नहीं करता । फिर यह सब मेरे ही पूर्व किये हुए कर्मोका फल है, दूसरा मनुष्य तो केवल इसमें निमित्त मात्र है अतः इसको सहना ही चाहिये । किन्तु यदि कोई अपनी कमजोरी के कारण क्षमाका भाव धारण करता है और हृदयमें बदला लेनेकी भावना रखता है तो वह क्षमा नहीं है। इस प्रकार मुनियोंके उत्तम क्षमा धर्मका व्याख्यान समाप्त हुआ ॥ ३९४ ॥ आगे उत्तम मार्दव धर्मको कहते हैं । अर्थ-उत्कृष्ट ज्ञानी और उत्कृष्ट तपखी होते हुए भी जो मद नहीं करता वह मार्दव रूपी रत्न का धारी है ॥ भावार्थ-जो मुनि सकल शास्त्रोंका ज्ञाता होकर भी वह मद नहीं करता कि मैं सकल शास्त्रोंका ज्ञाता हूँ,
१ब हवे।
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