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-३६८] १२. धर्मानुप्रेक्षा
२६९ दिन प्रति वासादिकयपमाण वर्षादिकृतप्रमाणं वर्षायनर्तुमासपक्षदिवसादिपर्यन्तकृतमर्याद कृतसंवरणम् अथवा वासादिकयपमाणं वस्त्रादिचतुर्दशवस्तूनां सप्तदशवस्तूनां प्रतिदिनं नियमः परिमाणं वा मर्यादासंख्या कर्तव्यम् । उक्तं च 'तंबूल १ गंध २ पुप्फा ३ दिससंखा ४ वत्थ ५ वाहणं ६ जाण ७। सञ्चित्तवत्थुसंखा ८ रसवाओ ९ आसणं सेजा १०॥ णियगाममग्गसंखा ११ उड्डा १२ अहो १३ तिरयगमणपरिमाणं १४ । एदे चउदसणियमा पडिदिवसं होंति सावयाणं च ॥' 'भोजने १ षडूसे २ पाने ३ कुडमादिविलेपने ४ । पुष्प ५ ताम्बूल ६ गीतेषु ७ नृत्यादौ ८ ब्रह्मचर्यके ९॥ स्नान १० भूषण ११ वस्त्रादी १२ वाहने १३ शयना १४ सने १५ । सचित्त १६ वस्तुसंख्यादौ १७ प्रमाणं. भज प्रत्यहम् ॥' इति । किमर्थ संवरणम् । लोभकामशमनार्थम् , लोभः तृष्णा परवस्तुवाञ्छा कामः कन्दर्पसुखं तयोर्लोभकामयोः शमनार्थ निरासार्थम् । पुनः किमर्थम् । सावद्यवर्जनार्थम् , सावद्यं हिंसादिकृतपापं तस्य पापकर्मणः वर्जनं निवृचिः तदर्थ पापव्यापारशमनाय पडिसंवरणं पूर्वकृतं संवरणमपि पुनः संवरणं प्रतिसंवरणम् । चतुर्थदेशावकाशिकशिक्षाप्रतस्याति
और वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष या दिनका परिमाण करके वह उतने समय तक उस मर्यादांके बाहर नहीं आता जाता । तथा इसी प्रकार इन्द्रियोंके विषयोंको भोगनेके परिमाणको भी घटाता है । अथवा गाथामें आये 'वासादिक पमाणं' पदका अर्थ 'वर्ष आदिका प्रमाण' न करके 'वन आदिका प्रमाण' अर्थ भी किया जा सकता है क्यों कि प्राकृतमें 'वास' का अर्थ वस्त्र भी होता है । अतः तब अर्थ ऐसा होगा कि देशावकाशिक व्रतीको वस्त्र आदि चौदह वस्तुओंका अथवा सतरह वस्तुओं का प्रतिदिन परिमाण करना चाहिये । वे चौदह वस्तुएँ इस प्रकार कही हैं-ताम्बूल, गन्ध, पुष्प वगैरह, वस्त्र, सवारी, सचित्तवस्तु, रस, वाद्य, आसन, शय्या, अपने गांवके मार्ग, ऊर्ध्वगमन, अधोगमन और तिर्यग्गमन । इन चौदह बातोंका नियम श्रावकको प्रति दिन करना चाहिये । सतरह वस्तुएँ इस प्रकार हैं-भोजन, षट् रस, पेय, कुंकुम आदिका लेपन, पुष्प, ताम्बूल, गीत, नृत्य, मैथुन, मान, भूषण, वस्त्र, सवारी, शय्या, आसन, सचित्त और वस्तु संख्या । इन सतरह वस्तुओंका प्रमाण प्रति दिन करना चाहिये कि मैं आज इतनी बार इतना भोजन करूंगा, या न करूँगा, आदि । यह प्रमाण लोभ कषाय और कामकी शान्तिके लिये तथा पापकर्मसे बचनेके लिये किया जाता है । इसीका नाम देशावकाशिक व्रत है । यह हम पहले लिख आये हैं कि किन्हीं आचार्योंने देशावकाशिक व्रतको गुणवतोंमें गिनाया है और किन्हींने शिक्षाव्रतोंमें गिनाया है । जिन आचार्योंने देशावकाशिकको शिक्षाव्रतोंमें गिनाया है उन्होंने उसे प्रथम शिक्षाव्रत रखा है तथा दिग्विरतिव्रतके अन्दर प्रतिदिन कालकी मर्यादा करके देशकी मर्यादाके सीमित करनेको देशावकाशिक कहा है । यही बात 'देशावकाशिक' नामसे भी स्पष्ट होती है । किन्तु इस ग्रन्थमें ग्रन्थकारने देशावकाशिकको चौथा शिक्षाव्रत रखा है तथा उसमें दिशाओंके परिमाणके संकोचके साथ भोगोपभोगके परिमाणको भी संकोचनेका नियम रखा है। ये बातें अन्यत्र हमारे देखनेमें नहीं आई । अस्तु, इस व्रतके भी पाँच अतिचार कहे हैं-काम पड़नेपर मर्यादित देशके बाहरसे किसी वस्तुको लानेकी आज्ञा देना आनयन नामक अतिचार है । मर्यादित देशसे बाहर किसीको भेजकर काम कराना प्रेष्यप्रयोग नामका अतिचार है । मर्यादित देशसे बाहर काम करनेवाले मनुष्योंको लक्ष्य करके खखारना वगैरह शब्दानुपात नामका अतिचार है । मर्यादित देशसे बाहर काम करनेवाले नौकरोंको अपना रूप दिखाना जिससे वे मालिकको देखता देखकर जल्दी २ काम करें, रूपानुपात. नामका अतिचार है।
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