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________________ -३६६] १२. धर्मानुप्रेक्षा २६७ दिने दिवसे, अपिशब्दात् सर्वस्मिन् दिने दत्तं दानं किं करोतीत्याह । उत्तमं सर्वोत्कृष्टम् इन्द्रसुखं कल्पवासिना देवेन्द्राणां सौधर्मेन्द्रादीनां सुखं शर्म ददाति वितरति । उक्तं च तथा। "सम्मादिट्ठी पुरिसो उत्तमपत्तस्स दिण्णदाणेण । उप्पजइ दिवलोए हवेइ स महडिओ देवो ॥ १॥ मिच्छादिट्ठी पुरिसो दाणं जो देदि उत्तमे पत्ते । सो पावइ वरभोए फुडु उत्तमभोयभूमीसु ॥२॥ मज्झिमपत्ते मज्झिमभोयम्भूमीसु पावए भोए। पावइ जहण्णभोए जहण्णपत्तस्स दाणेण ॥ ३ ॥ उत्तमोत्ते बीयं फलइ जहा कोडिलक्खगुण्णेहिं । दाणं उत्तमपत्ते फलइ तहा किमित्थ भणिएण ॥ ४ ॥” इति। तथा च सूत्रे विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात् तद्विशेषः' । सुपात्रप्रतिग्रहादिनवप्रकारपुण्योपार्जनं विधिरुच्यते । तस्य विधेः विशेषः आदरोऽनादरश्च । आदरेण विशिष्टं पुण्यं भवति । अनादरेण अविशिष्टं पुण्यमिति १ । द्रव्यं मकारत्रयरहितं तन्दुलगोधूमविकृतिघृतादिकं शुद्धं चर्मपात्रास्पृष्टं तस्य विशेषः ग्रहीतुर्मुनेस्तपःस्वाध्यायशुद्धपरिणामादिवृद्धिहेतुः विशिष्ट कारणम् अन्यथा अन्यादृशकारणम् । 'जो पुण हुंतइ कणधणइं मुणिहिं कुभोयणु देइ । जम्मि जम्मि दालिद्दडउ पुट्ठि ण तहु छंडेइ ॥ २ । दाता द्विजनृपवाणिजवर्णवर्णनीयस्तस्य विशेषः पात्रेऽनसूयः त्यागे विषादरहितः दातुमिच्छुः दाता ददद्दत्तवत्प्रीतियोगः शुभपरिणामः दृष्टफलानपेक्षकः सप्तगुणसमेतः दाता ३ । पात्रमुत्तममध्यमजघन्यभेदम्, तत्रोत्तमं पात्रं महाव्रतविराजितं मध्यमपात्रं श्रावकव्रतपवित्रं जघन्यपात्रं सम्यक्त्वेन निर्मलीकृतम् , तस्य विशेषः सम्यग्दर्शनादिशुद्धा शुद्धिः तद्विशेषः तस्य दानस्य फल विशेषस्तद्विशेषः । तथा अतिथिसंविभागस्य पञ्चातिचारा वर्जनीयाः । ते के। 'सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिकमाः । सचित्ते संघके शरीरमें शक्ति आती है । नीरोगता वगैरह रहती है और उनके होनेसे ज्ञान ध्यानका अभ्यास, तत्त्वचिन्तन, श्रद्धा, रुचि, पर्वमें उपवास, तीर्थयात्रा, धर्मका उपदेश सुनना सुनाना आदि कार्य सुखपूर्वक होते हैं । तथा ध्यानी ज्ञानी निम्रन्थ मुनिको छियालिस दोषों और १४ मलोंसे रहित दान एक दिन भी देनेसे कल्पवासी देवोंके सौधर्मेन्द्र आदि पदोंका सुख प्राप्त होता है । कहा भी है-"जो सम्यग्दृष्टि पुरुष उत्तम पात्रको दान देता है वह उत्तम भोगभूमिमें जन्म लेता है । जो मध्यम पात्रको दान देता है वह मध्यम भोगभूमिमें जन्म लेता है । और जो जघन्य पात्रको दान देता है वह जघन्य भोग भूमिमें जन्म लेता है । जैसे उत्तम जमीनमें बोया हुआ बीज लाख करोड़ गुना फलता है वैसे ही उत्तम पात्रको दिया हुआ दान मी फलता है ।" तत्त्वार्थ सूत्रमें भी कहा है-'विधि विशेष, द्रव्य, विशेष, दाता विशेष और पात्र विशेषसे दान में विशेषता होती है ।' आदरपूर्वक दान देना विधिकी विशेषता है क्यों कि आदर पूर्वक दान देनेसे विशेष पुण्य होता है और अनादर पूर्वक दान देनेसे सामान्य पुण्य होता है। मुनिको जो द्रव्य दिया जाये उसमें मद्य मांस मधुका दोष न हो, चावल गेहूं घी वगैरह सब शुद्ध हो, चमड़ेके पात्रमें रक्खे हुए न हो । जो द्रव्य मुनिके तप, खाध्याय और शुद्ध परिणामों आदिकी वृद्धिमें कारण होता है वह द्रव्य विशेष है । ऐसे द्रव्यके देनेसे विशिष्ट पुण्य बन्ध होता है, और जो द्रव्य आलस्य रोग आदि पैदा करता है उससे उल्टा पापबन्ध या साधारण पुण्यबन्ध होता है । कहा भी है-'जो पुरुष घरमें धन होते हुए भी मुनिको कुभोजन देता है अनेक जन्मोंमें भी दारिद्य उसका पीछा नहीं छोड़ता ।' दाता ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्यवर्णका होना चाहिये । पात्रकी निन्दा न करना, दान देते हुए खेदका न होना, जो दान देते हैं उनसे प्रेम करना, शुभ परिणामसे देना, किसी दृष्टफलकी इच्छासे न देना और सात गुण सहित होना, ये दाताकी विशेषता है। पात्र तीन प्रकारका बतलाया है-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । सम्यादर्शन, व्रत वगैरहका निर्मल होना पात्रकी विशेषता है । इन सब विशेषताओंके होने से दानके फलमें भी विशेषता होती है । अतिथिसंविभाग व्रतके भी पाँच अतिचार कहे हैं-सचित्त केले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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