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________________ २३४ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३२८दुर्गतिहेतुर्दुर्गतिकारणं द्वितीयादिनरकगमनहेतुः ज्योतिष्कव्यन्तरभवनवासिसर्वस्त्रीद्वादशमिथ्यावादेषु उत्पत्तिकारणं कर्म न बनातीत्यर्थः । तदपि प्रसिद्धं दुःकर्म अशुभकर्म नाशयति स्फेटयति समयं समयं प्रति गुणश्रेणिमात्रनिर्जरणं करोति निर्जरामुखेन विनाशयतीत्यर्थः । तत् किम् । यत् बहुभवेषु नरनारकाद्यनेकभवेषु बद्धं कर्मबन्धनविषयं नीतं सम्यग्दृष्टिर्दुर्गतिकारणं कर्म न बध्नाति । किं नाम दुर्गतिरिति चेत् आचार्या ब्रुवन्ति । "छसु हेट्टिमासु पुढवी जोइसवणभवणसव्वइत्थीसु । बारसमिच्छावादे सम्माइट्ठिस्स पत्थि उववादो॥" "पंचसु थावरवियले असणिणिगोदेसु मेच्छकुभूभोगे । सम्माइट्टी जीवा णो उववजति णियमेण ॥" तथा रविचन्द्राचार्येणोक्तं च। “षट्स्वधःपृथ्वीषु ज्योतिर्वनभवनजेषु च स्त्रीषु । विकलैकेन्द्रियजातिषु सम्यग्दृष्टेने चोत्पत्तिः ॥" तथा समन्तभद्रखामिनोक्तं च । “सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यकुपुंसकत्रीत्वानि । दुःकुलविकृताल्पायुर्दरिद्रता च व्रजन्ति नाप्यव्रतिकाः॥" "दुर्गतावायुषो बन्धे सम्यक्त्वं यस्य जायते । गतिच्छेदो न तस्यास्ति तथाप्यल्पतरा स्थितिः ॥" "न सम्यक्त्वसमं किंचित्काल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत् तनूभृताम् ॥” इत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्जघन्यपात्रस्य सागारिणः केवलसम्यक्त्वमेव धर्ममेदः प्रथमं निरूपितः ॥ ३२७॥ अथ द्वितीयदर्शनिकश्रावकलक्षणं लक्षयति गाथाद्वयेन बहु-तस-समण्णिदं जं मजं मंसादि णिदिदं दवं । जो ण य सेवदि णियदं सो दसण-सावओ होदि ॥ ३२८ ॥ [छाया-बहुत्रससमन्वितं यत् मद्य मांसादि निन्दितं द्रव्यम् । यः न च सेवते नियतं स दर्शनश्रावकः भवति ॥] स प्रसिद्धः दर्शनश्रावकः सम्यक्त्वपूर्वकश्रावकः दर्शनिकप्रतिमापरिणतः श्राद्धो भवति । स कः । यः दर्शनिकश्रावकः यत् मद्यं सुराम आसर्व न सेवते न भक्षयति नात्ति न पिबति।च पुनः, मांसादि निन्दितं द्रव्यं मांसं पलं पिशितं द्विधातुजम् आदि पृथिवियोंमें, ज्योतिष्क व्यन्तर और भवनवासी देवोंमें, स्त्रियोंमें, विकलेन्द्रियों और एकेन्द्रियोंमें सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती। समन्तभद्र खामीने भी कहा है-'सम्यग्दर्शनसे शुद्ध व्रतरहित जीव भी मरकर नारकी, तिर्यञ्च, नपुंसक, और स्त्री नहीं होते, तथा नीचकुलवाले, विकलाङ्ग, अल्पायु और दरिद्र नहीं होते।' किन्तु यदि किसी जीवने पहले आयुबन्ध कर लिया हो और पीछे उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई हो तो गतिका छेद तो हो नहीं सकता, परन्तु आयु छिदकर बहुत थोड़ी रह जाती है । जैसे राजा श्रेणिकने सातवें नरककी आयुका बन्ध किया था। पीछे उन्हें क्षायिक सम्यक्त्व हुआ तो नरक गतिमें तो उनको अवश्य जाना पड़ा परन्तु सातवें नरककी आयु छिदकर प्रथम नरककी जघन्य आयु शेष रह गई । अर्थात् ३३ सागरसे घटकर केवल चौरासी हजार वर्षकी आयु शेष रह गई । अतः सम्यग्दृष्टि जीव दुर्गतिमें लेजानेवाले अशुभ कर्मका बन्ध नहीं करता । इतना ही नहीं बल्कि पहले अनेक भवोंमें बांधे हुए अशुभ कर्मोकी प्रतिसमय गुणश्रेणि निर्जरा करता है। इसीसे सम्यक्त्वका माहात्म्य बतलाते हुए खामी समन्तभद्रने कहा है कि तीनों लोकों और तीनों कालोंमें सम्यक्त्वके बराबर कल्याणकारी वस्तु नहीं है और मिथ्यात्वके समान अकल्याणकारी वस्तु नहीं है । इस प्रकार गृहस्थ धर्मके बारह भेदोंमेंसे प्रथम भेद अविरतसम्यग्दृष्टिका निरूपण समाप्त हुआ ॥ ३२७ ॥ आगे दो गाथाओंसे दूसरे भेद दर्शनिकका लक्षण कहते हैं । अर्थ-बहुत त्रसजीवोंसे युक्त मद्य, मांस आदि निन्दनीय वस्तुओंका जो नियमसे सेवन नहीं करता वह दर्शनिक श्रावक है ।। भावार्थ-दर्शनिक श्रावक, दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव जिसमें पाये जाते हैं ऐसा शराब और मांस तथा आदि शब्दसे चमड़ेके पात्रमें रखे हुए हींग, तेल, घी और जल वगैरह, तथा मधु, मक्खन, रात्रिभोजन, पश्च उदुम्बर फल, अचार, मुरब्बे, घुना हुआ अनाज नहीं खाता और न सात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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