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________________ २१८ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ३०८जाग्रदवस्थितः ज्ञानोपयोगवान् जीवः अनन्तानुबन्धिोधमानमायालोभान मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतीश्चोपशमग्य प्रथमोपशमसम्यक्त्वं गृह्णातीत्यर्थः । तथा चोक्तम् । “दसणमोहुवसमदो उप्पजइ जं पयत्थसद्दहणं । उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णमलपंकतोयसमं ॥" अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य दर्शनमोहत्रयस्य च उदयाभावलक्षणप्रशस्तोपशमेन प्रसन्नमलपङ्कतोयसमानं यत्पदार्थश्रद्धानमुत्पद्यते तदिदमुपशमसम्यक्त्वं नाम । तस्य स्थितिकालः जघन्योत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्तकालः । अथ मिथ्यात्वोदयगो जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमुत्कृष्टांत् पुद्गलपरिवार्धस्तिष्ठति । तद्विविधपरिगामः उत्कृष्टतः अर्धपुद्गलावर्तकालं संसारे स्थित्वा पश्चात् मुक्तिं गच्छतीत्यर्थः । तथा च । “पढमे पढम णियमा पढमं विदियं च सव्वकालम्हि । जं पुण खाइयसम्म जम्हि जिणा तम्हि कालम्हि ॥” इति। तथा अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभसम्यक्त्वमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसप्तप्रकृतीनां क्षयात् क्षायिकम् । गाथात्रयेण तदुक्तं च । “खीणे दसणमोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होइ । तं खाइयसम्मन्नं णिचं कम्मक्खवणहेदू ॥१॥" मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्प्रकृतित्रयेऽनन्तानुबन्धिचतुष्टये च करणलब्धिपरिणामसामर्थ्यात् क्षीणे सति यच्छ्रद्धानं सुनिर्मलं भवति तत्क्षायिकसम्यक्त्वम् । नित्यं स्यात् प्रतिपक्षप्रक्षयोत्पन्नात्मगुणत्वात् । पुनः प्रतिसमयं गुणश्रेणि योग्य नहीं होता । एक काललब्धि तो यह है । दूसरी काललब्धि यह है कि जब जीवके कर्मोंकी उत्कृष्ट अथवा जघन्य स्थिति होती है तब औपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता। किन्तु जब कर्म अन्तःकोटाकोटी सागरकी स्थितिके साथ बंधते हैं, और फिर निर्मल परिणामोंके द्वारा उनकी स्थिति घटकर संख्यात हजार सागर हीन अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण शेष रहती है तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणके योग्य होता है । वह दूसरी काललब्धि है । इन काललब्धियोंके होनेपर जीवके करणलब्धि होती है । उसमें पहले अधःकरण फिर अपूर्वकरण और फिर अनिवृत्तिकरणको करता है । इन करणोंका मतलब एक विशेष प्रकारके परिणामोंसे है जिनके होनेपर सम्यक्त्वकी प्राप्ति नियमसे होती है। अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें चारों गतियोंमेंसे किसी भी गतिका संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक जीव उक्त सात प्रकृतियोंका उपशम करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करता है। कहा भी हैअनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंके उदयाभाव रूप प्रशस्त उपशमसे, जिसके नीचे मल बैठा हुआ है, उस निर्मल जलकी तरह जो पदार्थोंका श्रद्धान होता है उसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं । उपशम सम्यक्त्वकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है । उसके बाद यदि मिथ्यात्वका उदय आजाता है तो अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गल परावर्तन काल तक संसारमें रहकर पीछे वह जीव मुक्त हो जाता है । यह तो उपशम सम्यक्त्वका कथन हुआ । उक्त सात प्रकृतियोंके, अर्थात् अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यमिथ्यात्वके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्व होता है । कहा भी है-दर्शनमोहनीय कर्मके क्षीण हो जानेपर जो निर्मल सम्यग्दर्शन होता है वह क्षायिक सम्यक्त्व है । यह सम्यक्त्व सदा कोंके विनाशका कारण है । अर्थात् प्रतिपक्षी कर्मोके नष्ट हो जानेसे आत्माका सम्यक्त्व गुण प्रकट हो जाता है, और उसके प्रकट होनेसे प्रतिसमय गुणश्रेणिनिर्जरा होती है ॥ दर्शन मोहनीयका क्षय होनेपर जीव या तो उसी भवमें मुक्त हो जाता है या तीसरे भवमें मुक्त हो जाता है । यदि तीसरेमें भी मुक्त न हुआ तो चौथेमें तो अवश्य ही मुक्त हो जाता है । क्षायिक सम्यक्त्व अन्य सम्यक्त्वोंकी तरह उत्पन्न होकर छूटता नहीं है । अतः यह सादिअनन्त होता है अर्थात् इसकी आदि तो है किन्तु अन्त नहीं है, मुक्तावस्थामें भी रहता है ॥ तथा दर्शनमोहके क्षयका आरम्भ कर्मभूमिया मनुष्य ही केवलि भगवान्के पादमूलमें करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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