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१०. लोकानुप्रेक्षा
१८३ [छाया-इन्द्रियजं मतिज्ञानं योग्यं जानाति पुद्गलं द्रव्यम् । मानसज्ञानं च पुनः श्रुतविषयम् अक्षविषयं च ॥] यत् इन्द्रियजम् इन्द्रियेभ्यः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेभ्यः मनसा च जातम् उत्पन्नम् इन्द्रियानिन्दियजम् अवग्रहेहावायधारणामेदभिन्नं षट्त्रिंशदधिकत्रिशतभेदं मतिज्ञानं योग्यं पुद्गलद्रव्यम् , 'बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तधुवाणां सेतराणाम् ।' इति द्वादशमेदभिन्नं पुद्गलद्रव्यं स्पर्शरसवर्णसंस्थानादिक पदार्थ जानाति पश्यतीत्यर्थः । पुनः कथंभूतं मतिज्ञानम् । माणसणाणं मनसोत्पन्नं ज्ञानम् अनिन्द्रियजातज्ञानम् । च पुनः किंभूतम् । श्रुतविषयम् अस्फुटज्ञानविषयं 'श्रुतमनिन्द्रियस्य'। अभिधानात् श्रुतज्ञानगृहीतार्थग्राहकम् । च पुनः कीदृक्षम् । अक्षविषयम् इन्द्रियगृहीतार्थप्राहकम् ॥ २५८॥ अथ पञ्चेन्द्रियज्ञानानां क्रमेणोपयोगः न युगपदिति बंभणीतिविषयोंको भी जानता है | भावार्थ-मतिज्ञान पांचों इन्द्रियोंसे तथा मनसे उत्पन्न होता है । जो मतिज्ञान पांचों इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है वह तो अपने योग्य पुद्गल द्रव्यको ही जानता है क्योंकि पुद्गलमें स्पर्श, रस, गन्ध और रूप ये चार गुण होते हैं । और इनमेंसे स्पर्शन इन्द्रियका विषय केवल स्पर्श है, रसना इन्द्रियका विषय रस ही है, घ्राण इन्द्रियका विषय गन्ध ही है और चक्षु इन्द्रियका विषय केवल रूप है । तथा श्रोत्रेन्द्रियका विषय शब्द है, वह भी पौद्गलिक है । इस तरह इन्द्रियजन्य मतिज्ञान तो अपने अपने योग्य पुद्गल द्रव्यको ही जानता है । किन्तु मनसे मतिज्ञान भी उत्पन्न होता है, और श्रुतज्ञान भी उत्पन्न होता है । अतः मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान इन्द्रियोंके विषयोंको भी जानता है और श्रुतज्ञानके विषयको भी जानता है । मतिज्ञानके कुल भेद तीनसौ छतीस होते हैं जो इस प्रकार हैंमतिज्ञानके मूलभेद चार हैं-अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा । इन्द्रिय और पदार्थका सम्बन्ध होते ही जो सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं। दर्शनके अनन्तर ही जो पदार्थका ग्रहण होता है वह अवग्रह है । जैसे, चक्षुसे सफेद रूपका जानना अवग्रह ज्ञान है । अवग्रहसे जाने हुए पदार्थको विशेष रूपसे जाननेकी इच्छाका होना ईहा है, जैसे यह सफेद रूपवाली वस्तु क्या है ? यह तो बगुलोंकी पंक्ति मालूम होती है, यह ईहा है । विशेष चिह्नोंके द्वारा यथार्थ वस्तुका निर्णय कर लेना अवाय है । जैसे, पंखोंके हिलनेसे तथा ऊपर नीचे होनेसे यह निर्णय करना कि यह बगुलोंकी पंक्ति ही है, यह अवाय है । अवायसे निर्णीत वस्तुको कालान्तरमें नहीं भूलना धारणा है । बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव तथा अल्प, अल्पविध, अक्षिप्त, निःसृतः, उक्त, अध्रुव, इन बारह प्रकारके पदार्थोंके अवग्रह आदि चारों ज्ञान होते हैं । बहुत वस्तुओंके जाननेको बहुज्ञान कहते हैं। बहुत तरहकी वस्तुओंके जाननेको बहुविधज्ञान कहते हैं । जैसे, सेना या वनको एक समूह रूपमें जानना बहुज्ञान है और हाथी घोडे आदि या आम महुआ आदि भेदोंको जानना बहुविध ज्ञान है । वस्तुके एक भागको देखकर पूरी वस्तुको जान लेना अनिःसृत ज्ञान है । जैसे जलमें डूबे हुए हाथीकी सूंडको देखकर हाथीको जान लेना। शीघ्रतासे जाती हुई वस्तुको जानना क्षिप्रज्ञान है । जैसे तेज चलती हुई रेलगाडीको या उसमें बैठकर बाहरकी वस्तुओंको जानना । बिना कहे अभिप्रायसे ही जान लेना अनुक्त ज्ञान है । बहुत काल तक जैसाका तैसा निश्चल ज्ञान होना ध्रुव ज्ञान है । अल्प अथवा एक वस्तुको जानना अल्पज्ञान है। एक प्रकारकी वस्तुओंको जानना एकविध ज्ञान है। धीरे धीरे चलती हुई वस्तुको जानना अक्षिप्रज्ञान है। सामने पूरी विद्यमान वस्तुको जानना निःसृत ज्ञान है । कहने पर जानना उक्त ज्ञान है । चंचल बिजली वगैरहको जानना अध्रुव ज्ञान है। इस तरह बारह प्रकारका अवग्रह, बारह प्रकारका ईहा, बारह
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