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१०. लोकानुप्रेक्षा [छाया-नानाधर्मैः युतम् आत्मानं तथा परम् अपि निश्चयतः । यत् जानाति खयोग्यं तत् ज्ञान भण्यते समये॥] निश्चयतः परमार्थतः, यत् स्वयोग्यं संबन्धं वर्तमानं अभिमुखम् आत्मानम् जीवादिद्रव्यं स्वखरूपं वा तथा परमपि परद्रव्यमपि चेतनाचेतनादिकं वस्तु यजानाति वेत्ति पश्यति समये जिनसिद्धान्ते तत् ज्ञानं भण्यते । जानात खार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाण मिति मार्तण्डे प्रोक्तत्वात् । कीदृक्ष वस्तु । नानाधमैयुक्तं विविधस्वभावैः सहितं कथंचित् अस्तित्वनास्तित्वैकत्वानेकत्वनित्यत्वानित्यत्वभिन्नत्वाभिन्नत्वप्रमुखैराविष्टम् ॥२५३ ॥ अथ सामान्येन ज्ञानसद्भाव विभाव्य केवल ज्ञानास्तित्वं विशदयति
जं सब पि पयासदि दवं-पज्जाय-संजुदं लोयं ।
तह य अलोयं सव्वं तं गाणं सब-पच्चक्खं ॥ २५४॥ [छाया-यत् सर्वम् अपि प्रकाशयति द्रव्यं पर्यायसंयुतं लोकम् । तथा च अलोकं सर्व तत् ज्ञानं सर्वप्रत्यक्षम् ॥] तत् ज्ञानं सर्वप्रत्यक्ष सर्व लोकालोकं प्रत्यक्षेण पश्यतीत्यर्थः। तत् किम् । यत्सर्वमपि लोकं त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशतरजुप्रमाणं जगत् त्रैलोक्यम् । तथा च सर्वम् अलोकम् , अनन्तानन्तप्रमितम् अलोकाकाशं प्रकाशयति जानाति पश्यतीत्यर्थः । कथंभूतं लोकम् । द्रव्यपर्यायसंयुक्तम् । लोकाकाशे जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि, तेषां नरनारकादिद्यणुकादिबतलाकर ग्रन्थकार ज्ञानका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-जो नाना धर्मोंसे युक्त अपनेको तथा नाना धर्मोसे युक्त अपने योग्य पर पदार्थोंको जानता है उसे निश्चयसे ज्ञान कहते हैं । भावार्थ-जो जानता है उसे ज्ञान कहते हैं । अब प्रश्न होता है कि वह किसे जानता है? तो जो स्वयं अपनेको और अन्य पदार्थोंको जानता है वह ज्ञान है । इसीसे परीक्षामुखमें कहा है कि स्वयं अपने और पर पदार्थोंके निश्चय करने वाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । परीक्षामुख सूत्रकी विस्तृत टीका प्रमेयकमलमार्तण्डमें इसका व्याख्यान खूब विस्तारसे किया है । वस्तुमें रहनेवाले धर्मोके ज्ञानपूर्वक ही वस्तुका ज्ञान होता है, ऐसा नहीं है कि वस्तुके किसी एक भी धर्मका ज्ञान न हो और वस्तुका ज्ञान हो जाये । इसीसे कहा है कि नाना धमोंसे युक्त वस्तुको जो जानता है वह ज्ञान है । फिरभी संसारमें जाननेके लिये अनन्त पदार्थ हैं और हम सबको न जानकर जो पदार्थ सामने उपस्थित होता है उसीको जानते हैं। उसमें भी कोई उसे साधारण रीतिसे जान पाता है और कोई विशेष रूपसे जानता है । अर्थात् सब संसारी जीवोंका ज्ञान एकसा नहीं जानता । इसीसे कहा है कि अपने योग्य पदार्थोको जो जानता है वह ज्ञान है ॥ २५३ ॥ इस प्रकार सामान्यसे ज्ञानका सद्भाव बतलाकर ग्रन्थकार अब केवलज्ञानका अस्तित्व बतलाते हैं । अर्थ-जो ज्ञान द्रव्यपर्यायसहित समस्त लोकको और समस्त अलोकको प्रकाशित करता है वह सर्वप्रत्यक्ष केवलज्ञान है ॥ भावार्थ-आकाशद्रव्य सर्वव्यापी है और सब तरफ उसका अन्त नहीं है अर्थात् वह अनन्त है । उस अनन्त आकाशके मध्यमें ३४३ राजु प्रमाण लोक है। उस लोकमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल छहों द्रव्य रहते हैं। तथा उन द्रव्योंकी नर, नारक वगैरह और व्यणुक स्कन्ध वगैरह अनन्त पर्यायें होती हैं । लोकके बाहर सर्वत्र जो आकाश है वह अलोक कहा जाता है । वहाँ केवल एक आकाशद्रव्यः ही है । उसमें भी अगुरुलघु गुणकृत हानि वृद्धि होनेसे उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूप पर्याय होती हैं। इन द्रव्यपर्यायसहित लोक और अलोकको जो प्रत्यक्ष जानता है वही केवलज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्रमें भी सब द्रव्यों और
१ग वेदयति । २लम सग दध, बदव्यं (१) पजाय।
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