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१६२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० २२८व्यवतिष्ठते, खरविषाणवत्, वन्ध्यासुतवत् , गगनकुसुमवत् । एवम् अर्थक्रियाकारित्वाभावे नित्यम् आत्मादिवस्तु कथं कार्य करोति चेत् , यत्कार्य न करोति तदेव वस्तु न स्यात् ॥ २२७ ॥
पज्जय-मित्तं तच्चं विणस्सरं खणे खणे वि अण्णणं ।
अण्णंइ-दव-विहीणं ण य कजं किं पि साहेदि ॥ २२८ ॥ [छाया-पर्यायमात्रं तत्त्वं विनश्वर क्षणे क्षणे अपि अन्यत् अन्यत् । अन्वयिद्रव्यविहीनं न च कार्य किम् अपि साधयति ॥] यदि तत्त्वं जीवादिवस्तु, पर्यायमात्रं मतिज्ञानादिपर्यायरूपं, जीवद्रव्यविहीनं मृद्रव्यविहीनं च, शिवकस्थासकोशकुसूलघटकपालादिरूपं, क्षणे क्षणेऽपि समये समयेऽपि, अन्योन्य परस्परम् अन्वयिद्रव्यविहीनम् , अन्वयाः शिवकस्थासकोशकुसूलादयः ते विद्यन्ते यस्य तत् अन्वयि तच्च तद्रव्यं च, तेन विहीनं जीवादिद्रव्य विहीनं विनश्वर प्रतिसमयं विनाशि अङ्गीक्रियते चेत्, तर्हि तद्रव्यं किमपि कार्य न साधयति । तदुक्तमष्टसहरुयाम्। 'संतानः समुदायश्च साधर्म्य च निरकुशः । प्रेत्यभावश्च तत्सर्व न स्यादेकत्वनिह्नवे ॥ इति ॥ २२८ ॥ अथ नित्यैकान्ते क्षणिकैकान्ते च कार्याभावं विभाज्यानेकान्ते कार्यकारणभावं विभावयति
णवणव-कज-विसेसा तीसु वि कालेसु होति वत्थूणं ।
एक्केक्कम्मि य समये पुत्रुत्सर-भावमासिज ॥ २२९॥ [छाया-नवनवकार्यविशेषाः त्रिषु अपि कालेषु भवन्ति वस्तूनाम् । एकैकस्मिन् च समये पूर्वोत्तरभावमासाद्य ॥] वस्तूनां जीवादिद्रव्याणां पदार्थानां त्रिष्वपि कालेषु अतीतानागतवर्तमानसमयेषु नवनवकार्यविशेषाः उत्तर पर्यायकी उत्पत्ति न होनेसे वह वस्तु कुछ भी कार्य न कर सकेगी; क्योंकि कुछभी कार्य करनेसे वस्तुमें परिणमन अवश्य होगा और परिणमनके होनेसे वस्तु सर्वथा नित्य नहीं रहेगी। अतः नित्य वस्तुमें अर्थक्रिया सम्भव नहीं है ॥ २२७ ॥ आगे सर्वथा क्षणिक वस्तुमें अर्थक्रियाका अभाव बतलाते हैं ॥ अर्थ-क्षण क्षणमें अन्य अन्य होने वाला पर्यायमात्र विनश्वर तत्व, अन्वयी द्रव्यके बिना कुछभी कार्य नहीं कर सकता ॥ भावार्थ-यदि नाना पर्यायोंमें अनुस्यूत एक द्रव्यको न मानकर केवल पर्यायमात्रको ही माना जायेगा अर्थात् मति ज्ञानादि पर्यायोंको ही माना जाये और जीव द्रव्यको न माना जाये, या मिट्टीको न माना जाये और स्थास, कोश, कुसूल, घट, कपाल आदि पर्यायोंको ही माना जाये तो बिना जीव द्रव्यके मत्यादि पर्याय और बिना मिट्टीके स्थास आदि पर्याय हो कैसे सकती हैं ? इसीसे आप्तमीमांसामें कहा है कि नाना पर्यायोंमें अनुस्यूत एकत्व को न माननेपर सन्तान, समुदाय, साधर्म्य, पुनर्जन्म वगैरह कुछ भी नहीं बन सकता । इसका खुलासा इस प्रकार है-एक वस्तुकी क्रमसे होने वाली पर्यायोंकी परम्पराका नाम सन्तान है । जब एकत्वको नहीं माना जायेगा तो एक सन्तान कैसे बन सकेगी ? जैसे एकत्व परिणामको न माननेपर एक स्कन्धके अवयवोंका समुदाय नहीं बन सकता वैसेही सदृश परिणामोंमें एकत्वको न माननेपर उनमें साधर्म्य भी नहीं बन सकता । इसी तरह इस जन्म और परजन्ममें रहने वाली एक आत्माको न माननेपर पुनर्जन्म नहीं बनता तथा देन लेनका व्यवहारभी एकत्वके अभाव में नहीं बन सकता; क्योंकि जिसने दिया और जिसने लिया वे दोनों तो उसी क्षण नष्ट हो गये, तब न कोई देनेवाला रहा और न कोई लेनेवाला रहा । अतः नित्यैकान्तकी तरह क्षणिकैकान्तमें भी अर्थक्रिया नहीं बनती ॥ २२८॥ आगे अनेकान्तमें कार्यकारणभावको बतलाते हैं। अर्थ-वस्तुओंमें तीनों ही कालोंमें प्रति समय पूर्व
१ग अणई-। २ ब-पुस्तके गाथेयं नास्ति । ३ ग तीस्सु । ४ म भावमासज्ज ।
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