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________________ १५६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० २२४ [ छाया - कारणकार्यविशेषाः त्रिषु अपि कालेषु भवन्ति वस्तूनाम् । एकैकस्मिन् च समये पूर्वोत्तरभावमासाद्य ॥ ] वस्तूनां जीवादिद्रव्याणां त्रिष्वपि कालेषु अतीतानागतवर्तमानलक्षणेषु कालेषु एकैकस्मिन् एकस्मिन् एकस्मिन् समये समये क्षणे क्षणे कारणकार्यविशेषाः हेतुफलभावाः द्रव्यपर्यायरूपा भवन्ति । किं कृत्वा । पूर्वोत्तरभावमाश्रित्य पूर्वपर्यायम् उत्तरपर्याय च आश्रित्य श्रित्वा, एकैकस्मिन् समये वस्तूत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं भवाते । 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' । इति उमाखातिवचनात् । यथा एकस्मिन् समये मृत्पिण्डस्य विनाश एव घटस्योत्पादः मृद्रव्येण श्रौष्यम् इत्येकस्मिनेव समये पूर्वोत्तरभावेन कारणकार्यरूपेण उत्पादविनाशौ स्तः ॥ २२३ ॥ अथानन्तधर्मात्मकं वस्तु निर्णयतिसंति अनंताणंता तीसु वि कालेसु सब-दवाणि । स पि अयंतं तत्तो भणिदं जिणेंदेहिं ॥ २२४ ॥ छाया - सन्ति अनन्तानन्ताः त्रिषु अपि कालेषु सर्वद्रव्याणि । सर्वम् अपि अनेकान्तं ततः भणितं जिनेन्द्रः ॥ ] तत्तो ततः तस्मात्कारणात् जिनेन्द्रैः सर्वज्ञैः सर्वमपि वस्तु नत्वेकम् अनेकान्तम् अनेकान्तात्मकं नित्यनित्याद्यनेकान्तरूपं, यतः सर्वद्रव्याणि सर्वाणि जीवपुद्गलादीनि वस्तूनि, त्रिष्वपि कालेषु अतीतानागतवर्तमान कालेषु अनन्तानन्ताः सन्ति अनन्तानन्तपर्यायात्मकानि भवन्ति अनन्तानन्तसदसन्नित्यानित्याद्यनेकधर्मविशिष्टानि भवन्ति । अतः सर्वं जीवपुद्गलादिकं द्रव्यं जिनेन्द्रैः सप्तभङ्गया कृत्वा अनेकान्तं भणितम् । तत्कथमिति चेदुच्यते । 'एकस्मिन्नविरोधेन प्रमाणनयवाक्यतः । सदादिकल्पना या च सप्तभङ्गीति सा मता ॥' स्यादस्ति । स्यात्कथंचित् विवक्षित प्रकारेण वद्रव्य स्वक्षेत्र स्व कालखभावचतुभावका निश्चय करते हैं । अर्थ- वस्तुके पूर्व और उत्तर परिणामको लेकर तीनोंही कालों में प्रत्येक समयमें कारणकार्यभाव होता है । भावार्थ - वस्तु प्रति समय उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक होती है । तत्त्वार्थसूत्र में उसे ही सत् कहा है जिसमें प्रतिसमय उत्पाद व्यय और धौव्य होता है । जैसे, 1 मिट्टीका पिण्ड नष्ट होकर घट बनता है । यहाँ मिट्टीके पिण्डका विनाश और घटका उत्पाद एक ही समयमें होता है तथा उसी समय पिण्डका विनाश और घटका उत्पाद होनेपर मी मिट्टी मौजूद रहती है। इसी तरह एकही समयमें पूर्व पर्यायका विनाश और उत्तर पर्यायका उत्पाद प्रत्येक द्रव्यमें प्रति समय होता है । अतः तीनों कालोंमें प्रत्येक द्रव्यमें कारण कार्यकी परम्परा चालू रहती है । जो पर्याय अपनी पूर्व पर्यायका कार्य होती है वही पर्याय अपनी उत्तर पर्यायका कारण होती है । इस तरह प्रत्येक द्रव्य स्वयं ही अपना कारण और स्वयं ही अपना कार्य होता है ॥ २२३ ॥ आगे यह निश्चित करते हैं कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । अर्थ- सब द्रव्य तीनोंही कालों में अनन्तानन्त हैं । अतः जिनेन्द्रदेवने सभीको अनेकान्तात्मक कहा है ॥ भावार्थ - तीनोंही कालोंमें प्रत्येक द्रव्य अनन्तानन्त है; क्योंकि प्रति समय प्रत्येक द्रव्यमें नवीन नवीन पर्याय उत्पन्न होती है और पुरानी पर्याय नष्ट होजाती है फिर भी द्रव्यकी परम्परा सदा चालू रहती है। अतः पर्यायोंके अनन्तानन्त होनेके कारण द्रव्य भी अनन्तानन्त है । न पर्यायोंका ही अन्त आता है और न द्रव्यका ही अन्त आता है । इसीसे जैनधर्ममें प्रत्येक वस्तुको अनेक धर्मवाली कहा है। इसका खुलासा इस प्रकार है । जैनधर्ममें सत् ही द्रव्यका लक्षण 1 है, असत् या अभाव नामका कोई स्वतंत्र तत्त्व जैन धर्ममें नहीं माना । किन्तु जो सत् है वही दृष्टि बदलनेसे असत् हो जाता है । न कोई वस्तु केवल सत् ही है और न कोई वस्तु केवल असत् ही है । यदि प्रत्येक वस्तुको केवल सत् ही माना जायेगा तो सब वस्तुओंके सर्वथा सत् होनेसे उनके बीचमें जो मेद देखा जाता है उसका लोप हो जायगा । और उसके लोप होनेसे सब वस्तुएँ परस्परमें १ क्वचित् 'उमास्वामि' इति पाठः । २ ल स ग जिणंदेहि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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