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१०. लोकानुप्रेक्षा
१४१ जं इंदिएहिँ गिज्झं रूवं-रस-गंध-फास-परिणामं ।
तं चिये पुग्गल-दव्वं अणंत-गुणं जीव-रासीदो ॥ २०७॥ [ छाया-यत् इन्द्रियैः प्राह्य रूपरसगन्धस्पर्शपरिणामम् । तत् एव पुद्गलद्रव्यम् अनन्तगुणं जीवराशितः ॥] अथ पुद्गलद्रव्यस्य ग्राहित्वमस्तित्वं च कथमिति चेदाह । तदेव पुद्गलद्रव्यं जानीहीत्यध्याहार्यम् । तत् किम् । यदिन्द्रियः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राक्षाचं विषयभावं नीतम् । यतः रूपरसगन्धस्पर्शपरिणामम् । अत्र हेत्वर्थे प्रथमा । हेतौ सर्वाः प्रायः । इति जैनेन्द्रव्याकरणे प्रोक्तत्वात् । यथा 'गुरवो राजमाषो न भक्षणीयाः' इति यथा तथा चाय पुद्गलद्रव्यम् इन्द्रियग्राह्यं रूपरसगन्धस्पर्शपरिणामत्वात् पुद्गलपर्यायत्वात् । यथा शीतोष्णस्निग्धरूक्षमृदुकर्कशगुरुलघुसंज्ञाः अष्टौ स्पर्शाः, स्पर्शनेन्द्रियेण स्पृश्यन्ते इति स्पर्शाः स्पर्शनेन्द्रियेण ग्राह्या इत्यर्थः १ । तिक्तकटुककषायाम्लमधुरसंज्ञाः पञ्च रसाः, रसनेन्द्रियेण रस्यन्ते रसाः रसनेन्द्रियेण प्राह्याः इत्यर्थः २ । सुगन्धदुर्गन्धसंज्ञौ द्वौ गन्धौ; गन्ध्येते तो गन्धौ घ्राणेन्द्रियस्य विषयो ३ । श्वेतपीतनीलारुणकृष्णसंज्ञाः पञ्च वोः, चक्षुरिन्द्रियेण वण्यन्ते इति चक्षुरिन्द्रियेण गोचराः ४ । शब्द्यते इति शब्दः, कर्णेन्द्रियविषयः ५। व्यतिरेकेण जीववत् । तत्कियन्मात्रं जीवराशितः । सर्वजीवराशेरनन्तानन्तसंख्यातयुक्तत्वात् १६ अनन्तगुणं पुद्गलद्गव्यं १६ ख ॥ २०७॥ अथ पुद्गलस्य जीवोपकारकारित्वं गाथाद्वयेन दर्शयति
अर्थ-जो रूप, रस, गन्ध, और स्पर्शपरिणाम वाला होनेके कारण इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करने योग्य होता है वह सब पुद्गलद्रव्य है । उनकी संख्या जीवराशिसे अनन्तगुणी है ॥ भावार्थ-अब ग्रन्थकार पुद्गलद्रव्यका अस्तित्व और ग्रहण होनेकी योग्यता बतलाते हैं-'इसीतरह पुद्गलद्रव्यको जानो' यह वाक्य ऊपरसे ले लेना चाहिये । पुद्गलद्रव्य स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रियके द्वारा ग्रहण किये जानेके योग्य होता है; क्योंकि उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श पाया जाता है । इस गाथामें 'रूवरसगंधफासपरिणाम' यह प्रथमा विभक्ति हेतुके अर्थमें है । क्योंकि जैनेन्द्र व्याकरणमें हेतुके अर्थमें प्रथमा विभक्ति होनेका कथन है । जैसे किसीने कहा-'गुरवो राजमाषा न भक्षणीयाः ।' अर्थात् गरिष्ठ उड़द नहीं खाना चाहिये । इसका आशय यह है कि उड़द नहीं खाना चाहिये क्योंकि वे गरिष्ठ होते हैं-कठिनतासे हजम होते हैं । इस वाक्यमें 'गुरवः' प्रथमा विभक्तिका रूप है किन्तु वह हेतुके अर्थमें है । इसी तरह यहाँ भी जानना चाहिये कि पुद्गलद्रव्य इन्द्रियग्राह्य है; क्योंकि उसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श गुण पाये जाते हैं । जैसे, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, कठोर, भारी, हल्का ये आठ स्पर्श हैं । जो स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा स्पष्ट किये जाते हैं अर्थात् स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ग्रहण किये जानेके योग्य होते हैं उन्हें स्पर्श कहते हैं । तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल, मधुर ये पांच रस हैं, जो रसनेन्द्रियके द्वारा अनुभूत किये जाते हैं । सुगन्ध और दुर्गन्ध नामके दो गन्ध गुण हैं । वे गन्ध गुण घ्राण इन्द्रियके विषय हैं । सफेद, पीला, मीला, लाल और काला, ये पांच वर्ण अर्थात् रूप हैं । जो चक्षु इन्द्रियके द्वारा देखे जाते हैं अर्थात् चक्षु इन्द्रियके विषय होते हैं, उन्हें वर्ण या रूप कहते हैं । जो सुना जाता है उसे शब्द कहते है । शब्द कर्ण इन्द्रियका विषय होता है । इस तरह पुद्गलं द्रव्यमें रूप स्पर्श आदिके होनेसे वह इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किया जा सकता है । अब यह बतलाते हैं कि पुद्गलद्रव्य कितने हैं ? समस्त जीवराशी की संख्या अनन्तानन्त है । उससे मी
१ प राजा माषा । १ ल स रूवरस । २ ब तें विय, म स तं विय ।
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