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________________ -१८७] १०. लोकानुप्रेक्षा १५३ "निषादर्षभगान्धारषहजममध्यमधैवताः । पञ्चमश्चेति सप्तैते तन्त्रीकण्ठोस्थिताः खराः ॥ १॥ कण्ठदेशे स्थितः षड्जः शिरःस्थ ऋषभस्तथा। नासिकायां च गान्धारो हृदये मध्यमो भवेत् ॥ २॥ पञ्चमश्च मुखे यस्तासुदेशे तु धैवतः । निषादः सर्वगात्रे च ज्ञेयाः सप्त खरा इति ॥३॥ नि : सर्वगात्रे च जेयाः सप्त खरा इति॥३॥ निषाद कजरो वक्तिते गौ ऋषभं तथा। अजा वदति गान्धारे षडर्ज ते भुजाभुक ॥४॥ ब्रवीति मध्यम क्रौञ्चो धैवतं चतुरंगमः । पुष्पसंधारणे काले पिकः कूजति पश्चमम् ॥ ५॥ नासाकण्ठमुरस्ताजिहादन्ताश्च संस्पृशन् । षड्मयः संजायते यस्मात् तस्मात् षड्ज इति स्मृतः ॥ ६॥ मृणामुरसि मन्द्रस्तु द्वाविंशतिविधो ध्वनिः । स एव कण्ठे मध्यः स्यात् तारः शिरसि गीयते ॥७॥ घनं तु कांस्यतालादि वंशादिसुषिरं विदुः । ततं वीणादिकं वायं विततं पटहादिकम् ॥८॥" इति खरसप्तवाच्यं श्रवणविषयं करोति। का। देहमिलितो जीवः । अपि पुनः, भुंजदि अर्ज भुके, अशनपानखाद्यखाद्यमाहारं भुक्के अनाति । कः। देहमिलितो जीवः अपि पुनः,गच्छति चतुर्दिब्यागें चतुर्विदिब्यागें अध ऊर्ध्वमार्गेच याति ब्रजति का देहमिलितो जीवः॥१८॥ अथ जीवस्यात्मदेहयोः जीवस्य भेदापरिज्ञानं दर्शयति राओ हं भिच्चो हं सिट्ठी है चेव दुब्बलो बलिओ। इदि एयत्ताविट्ठो दोण्हं भेयं ण बुज्झेदि ॥ १८७ ॥ [छाया - राजा अहं मृत्यः अहं श्रेष्ठी अहं चैव दुर्बलः बली । इति एकत्वाविष्टः द्वयोः मेदं न बुध्यति ॥] इत्यमुना प्रकारेण एकत्वाविष्टः, अहं शरीरमेवमित्येकत्वं परिणतः, एकान्तत्वं मिथ्यात्वं प्राप्तो बहिरात्मा वा दोण्हं द्वयोजीवमिला हुआ होनेपर मी जीव चलता है॥भावार्थ-ऊपर कहीगई बातोंके सिवा शरीरसे संयुक्त होनेपर भी जीव सफेद, पीली, हरी, लाल और काले रंगकी विविध वस्तुओंको आंखोंसे मन लगाकर देखता है । तथा कानोंसे शब्दोंको सुनता है । शब्द अथवा खरके भेद इस प्रकार बतलाये हैं-निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत, और पश्चम ये सात स्वर तन्त्रीरूप कण्ठसे उत्पन्न होते हैं।१। जो खर कण्ठ देशमें स्थित होता है उसे षड्ज कहते हैं। जो खर शिरोदेशमें स्थित होता है उसे ऋषभ कहते हैं । जो खर नासिका देशमें स्थित होता है उसे गान्धार कहते है । जो खर हृदयदेशमें स्थित होता है उसे मध्यम कहते हैं।२। मुख देशमें स्थित खरको पञ्चम कहते हैं । तालुदेशमें स्थित खरको धैवत कहते हैं और सर्व शरीरमें स्थित स्वरको निषाद कहते हैं। इस तरह ये सात खर जानने चाहिये । ३ । हाथीका खर निषाद है । गौका खर वृषभ है। बकरीका स्वर गान्धार है और गरुडका खर षड्ज है । ४ । क्रौञ्च पक्षीका शब्द मध्यम है । अश्वका खर धैवत है और वसन्तऋतुमें कोयल पञ्चम स्वरसे कूजती है । ५। नासिका, कण्ठ, उर, ताल, जीभ और दांत इन छैके स्पर्शसे षड्ज खर उत्पन्न होता है इसीसे उसे षड्ज कहते हैं । मनुष्योंके उरप्रदेशसे जो बाईस प्रकारकी ध्वनि उच्चरित होती है वह मन्द्र है । यही जब कण्ठदेशसे उच्चरित होती है तो मध्यम है । और जब शिरो देशसे गाई जाती है तब 'तार' है । ७ । कांसेके बाजोंके शब्दको घन कहते हैं। बांसुरी वगैरहके शब्दको सुषिर कहते हैं। वीणा वगैरह वाघोंके शब्दको तत कहते हैं और ढोल वगैरहके शब्दको वितत कहते हैं। ८ । इन सात खरोंको यह शरीरसे संयुक्त जीव ही सुनता है। यही अशन, पान, खाथ और खाद्यके भेदसे चार प्रकारके आहारको ग्रहणं करता है ॥ १८६ ॥ आगे बतलाते हैं कि जीव आत्मा और शरीरके मेदको नहीं जानता । अर्थ-मैं राजा हूँ, मैं मुख्य हूं, मैं सेठ हूं, मैं दुर्बल हूँ, मैं बलवान् हूं, इस प्रकार शरीर और आत्माके एकत्वको मानने १ब दुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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