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१०. लोकानुप्रेक्षा तत् मतिश्रुतादिभेदेन प्रसिद्ध ज्ञानं बोधः भिन्न पृथक् भवति यदि चेत् , तदा दोण्हं जीवज्ञानयोः गुणगुणिभावः, ज्ञान गुणः जीवः गुणी इति भावः, दूरेण अत्यर्थ प्रणश्यति । चशब्दात् खभावविभावः कार्यकारणभावश्च गृह्यते, सह्यविन्ध्यवत् । यथा साविन्ध्ययोरत्यन्तभेदेन न घटते तथात्मज्ञानयोरपि ॥ १७९॥ अथ जीवज्ञानयोः गुणगुणिभावेन मेदं निगदति
जीवस्स वि णाणस्स वि गुणि-गुण-भावेण कीरए भेओ।
जं जाणदि तं गाणं एवं भेओ कह होदि ॥ १८ ॥ [छाया-जीवस्य अपि ज्ञानस्य अपि गुणिगुणभावेन क्रियते मेदः । यत् जानाति तत् ज्ञानम् एवं भेदः कथं भवति ॥ जीवस्यापि ज्ञानस्यापि भेदः पृथक्त्वं गुणगुणिभावेन क्रियते । ज्ञानं गुणः, आस्मा गुणी, ज्ञानजीवखभावेन गुणगुणिनोः कथंचिद्भेदः भिन्नलक्षणत्वात् , घटवस्त्रवदिति तयोभिलक्षणत्वं परिणामविशेषात् शक्तिमच्छक्तिभावतः संज्ञासंख्याविशेषाच कार्यकारणभेदाच पावकोष्णवत्। तथा चोक्तमष्टसहभ्याम् । "द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरध्यतिरेकतः। परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ॥ संज्ञासंख्याविशेषाच खलक्षणविभेदतः । कार्यकारणभेदाच तनानात्वं म सर्वथा ॥” इति ॥ १८०॥ अथ ज्ञानं पृथ्व्यादिभूतविकारमिति वादिनं चार्वाक निराकरोतियदि ऐसा मानते हो तो जीव और ज्ञानमें से जीव गुणी है और ज्ञान गुण है यह गुणगुणी भाव एकदम नष्ट होजाता है । जैसे सह्य और विन्ध्य नामके पर्वतोंमें न गुणगुणी भाव है, न कार्यकारण भाव है, और न खभाव-स्वभाक्वान्पना है । इसलिये वे दोनों अत्यन्त भिन्न हैं । इसी तरह आत्मा और ज्ञानको भी सर्वथा भिन्न माननेसे उनमें गुणगुणीपना नहीं बन सकता ॥ १७९ ॥ अब कोई प्रश्न करता है कि यदि आत्मा और ज्ञान जुदे जुदे नहीं हैं तो उनमें गुण. गुणीका भेद कैसे है ? इसका उत्तर देते हैं । अर्थ-जीव और ज्ञानमें गुण-गुणी भावकी अपेक्षा मेद किया जाता है। यदि ऐसा न हो तो 'जो जानता है वह ज्ञान है' ऐसा भेद कैसे हो सकता है । भावार्थ-गुणगुणी भावकी अपेक्षा जीव और ज्ञानमें मी भेद किया जाता है कि ज्ञान गुण है और आत्मा गुणी है । क्योंकि जैसे भिन्न लक्षण होनेसे घट और वस्न भिन्न भिन्न हैं वैसे ही गुण और गुणी मी भिन्न लक्षणके होनेसे भिन्न भिन्न हैं-गुणका. लक्षण जुदा है और गुणीका लक्षण जुदा है । गुणी परिणामी है
और गुण उसका परिणाम है । गुणी शक्तिमान् है और गुण शक्ति है । गुणी कारण है और गुण कार्य है । तथा गुण और गुणीमें नाम भेद है । संख्याकी अपेक्षा भेद है गुणी एक होता है और गुण अनेक होते हैं । जैसे अग्नि गुणी है और उष्ण गुण है । ये दोनों यद्यपि अभिन्न हैं फिर मी गुण गुणी भावकी अपेक्षा इन दोनोंमें भेद है । इसी तरह जीव और ज्ञानमें भी जानना चाहिये । आचार्य समन्तभद्रने भी आप्तमीमांसा कारिका ७१-७२ में ऐसा ही कहा है और अष्टसहस्रीमें उसका व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि 'द्रव्य अर्थात् गुणी और पर्याय अर्थात् गुण दोनों एक वस्तु है; क्योंकि वे दोनों अभिन्न हैं फिर भी उन दोनोंमें कथंचित् भेद है । क्योंकि दोनोंका स्वभाव भिन्न भिन्न है-द्रव्य अनादि अनन्त और एकखभाव होता है और पर्याय सादि सान्त और अनेक खभाववाली होती है । द्रव्य शक्तिमान् होता है और पर्याय उसकी शक्तियां हैं। द्रव्यकी संज्ञा. द्रव्य है और पर्यायकी संज्ञा पर्याय है । द्रव्यकी संख्या एक होती है और पर्यायोंकी संख्या अनेक
गुणिगणि, कम सग गुणगुणि। २ आदर्श 'कारिकारण' इति पाठः।
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