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१०. लोकानुप्रेक्षा छाया-मनुजात् नैरयिकाः नैरयिकात् असंख्यगुणगुणिताः । सर्वे भवन्ति देवाः प्रत्येकवनस्पतयः ततः॥] मणुयादो सामान्यमनुष्यराशितः सूच्यङ्गुलप्रथमतृतीयमूलभक्कैकश्रेणिमात्रात् । रइया नारकाः असंख्यातगुणाः घनाङ्गुलद्वितीयमूलजगच्छ्रेणिमात्रा-२ मू । ततो नारकराशितः सर्वदेवा असंख्यातगुणाः ।।६५=, || /१/१/१ ततः असंख्यातगुणाः = a ॥ १५३ ॥
पंचक्खा चउरक्खा लद्धियपुण्णी तहेव तेयक्खा ।
वेयक्खा वि य कमसो विसेस-सहिदा हु सव्व-संखाएं ॥ १५४॥ छाया-पञ्चाक्षाः चतुरक्षाः लब्ध्यपूर्णाः तथैव त्र्यक्षाः । ब्यक्षाः अपि च क्रमशः विशेषसहिताः खलु सर्वसंख्यया ॥1 पंचक्खा लब्ध्यपर्याप्ताः पञ्चेन्द्रियास्तिर्यञ्चः संख्यातघनांगुलभक्तजगत्प्रतरमात्राः । ततः चतुरिन्द्रिया लब्ध्यपर्याप्ता विशेषेणाधिकाः । तहेव तथैव त्रीन्द्रिया लब्ध्यपर्याप्ता विशेषाधिकाः। ततः वेयक्खा द्वीन्द्रिया लब्ध्यपर्याप्ताः विशेषाधिकाः क्रमशः क्रमेण सर्वसंख्यया ॥ १५४ ॥ विवक्षित गुणस्थान या मार्गणास्थानको जब तक प्राप्त न हो उतने कालको अन्तर काल कहते हैं । सो नाना जीवोंकी अपेक्षा उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तरकाल सात दिन है। अर्थात् तीनों लोकोंमें कोई जीव उपशम सम्यक्त्वी न हो तो अधिकसे अधिक सात दिन तक नहीं होगा, उसके बाद कोई अवश्य उपशम. सम्यक्त्वी होगा। इसी तरह सबका अन्तर समझना चाहिये । सूक्ष्म साम्पराय संयमका अन्तरकाल छः महिना है । छ: महिनेके बाद कोई न कोई जीव सूक्ष्म साम्पराय संयमी अवश्य होगा । आहारक और आहारक मिश्रकाययोगका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । तीन से ऊपर और नौसे नीचेकी संख्याको पृथक्त्व कहते हैं । सो इन दोनोंका अन्तर तीन वर्षसे अधिक और नौ वर्षसे कम है । इतने कालके बाद कोई आहारककाययोगी अवश्य होगा। वैक्रियिक मिश्र काययोगका उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है । बारह मुहूर्तके बाद देवों और नारकियोंमें कोई जीव अवश्य जन्म लेगा । तथा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सासादन गुणस्थानवर्ती और मिश्र गुणस्थानवी जीव, इन तीनोंमेंसे प्रत्येकका अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है । यह आठ सान्तर मार्गणा हैं । इनका जघन्य अन्तर एक समय है ॥ तथा प्रथमोपशमसम्यक्त्व सहित पंचमगुणस्थानवी जीवका अन्तर काल चौदह दिन है । और प्रथमोपशम सम्यक्त्व सहित महाव्रतीका अन्तरकाल पन्द्रह दिन है । और दूसरे सिद्धान्तकी अपेक्षा चौबीस दिन है । इस तरह नाना जीवोंकी अपेक्षा यह अन्तर कहा है। इन मार्गणाओंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर अन्य ग्रन्थोंसे जानलेना चाहिये । अन्तरका कथन समाप्त हुआ ॥ १५२ ॥ अब जीवोंकी संख्याको लेकर अल्पबहुत्व कहते हैं । अर्थ-मनुष्योंसे नारकी असंख्यातगुने हैं । नारकियोंसे सब देव असंख्यात गुने हैं । देवोंसे प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव असंख्यात गुने हैं ॥ भावार्थ-सूच्यंगुलके प्रथम और तृतीय वर्गमूलसे भाजित जगतश्रेणि प्रमाण तो सामान्य मनुष्यराशि है । सामान्य मनुष्यराशिसे असंख्यात गुने नारकी हैं । नारकियोंकी राशिसे सब देव असंख्यात गुने हैं और सब देवोंसे प्रत्येक वनस्पति जीव असंख्यात गुने हैं ॥ १५३ ॥ अर्थ-पञ्चेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और दोइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव संख्याकी अपेक्षा क्रमसे विशेष अधिक हैं । भावार्थ-लब्ध्यपर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च संख्यात धनांगुलसे भाजित जगत
१ ब लद्धिअपुण्णा तहेय। २ ब विसेसिसहदा, ग विसेसहिदा। ३ स संक्खाय, म सव्वजए। कातिके० १२
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