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१०. लोकानुप्रेक्षा 'जत्येक मरदि जीवो तत्थ दु मरण हवे अणताणं । वकमइ जत्थ एको चकमणं तत्थ ताण ॥' १२६ ॥ अथ सूक्ष्मत्वं बादरावं च व्यनकि
ण य जेसिं पडिखलणं पुढवी-तोएहिँ अग्गि-वाएहिं ।
ते जाणे सुहुम-काया इयरा पुण' थूल-काया य ॥ १२७ ॥ [छाया-न च येषां प्रतिस्खलनं पृथ्वीतोयाभ्याम् अमिवाताभ्याम्। ते जानीहि सूक्ष्मकायाः इतरे पुनः स्थूलकायाः च ॥] ते पञ्च स्थावरा जीवाः सूक्ष्मा इति जानीहि । येषां जीवानां प्रतिस्खलनं रुन्धनम् । केः । पृथिवीतोयैः पृथिवीकायापकायैः, च पुनः, अग्निवातैः अमिकायवायुकायैः, न च कैरपि द्रन्यैः वज्रपटलादिभिः येषां जीवानां प्रतिस्खलन रुन्धनं न विद्यते इति भावः। ते सूक्ष्मकायाः सूक्ष्मकायिका जीवास्तान् जानीहि विद्धि त्वम् । पुनः इयरा इतरे अन्ये पृथिवीकायिकादयः पृथ्वीजलवातानिकायिभिः प्रतिस्खलनोपेताः स्थूलकायाश्च बादराः कथ्यन्ते ॥ १२७॥ अथ प्रत्येकवरूप प्ररूपयति
पत्तेया वि य दुविहा णिगोद-सहिदों तहेव रहिया य ।
दुविहा होति' तसा वि य वि-ति-चउरक्खा तहेव पंचक्खा ॥१२८ ॥ [छाया-प्रत्येकाः अपि च द्विविधाः निगोदसहिताः तथैव रहिताः च । द्विविधाः भवन्ति त्रसाः अपि च द्वित्रिचतुरक्षाः तथैव पञ्चाक्षाः ॥] अपि च, प्रत्येकाः प्रत्येकवनस्पतिकायिकाः, दुविहा द्विविधाः द्विप्रकाराः, एके निगोदसहिताः
हैं। इन्हें ही निगोदिया जीव कहते हैं। इन साधारण अथवा निगोदिया जीवोंके भी दो भेद हैं-एक नित्य निगोदिया और एक इतर निगोदिया अथवा चतुर्गति निगोदिया । जो जीव अनादिकालसे निगोदमें ही पडे हुए हैं और जिन्होंने कभी भी उस पर्याय नहीं पाई है उन्हें नित्य निगोदिया कहते हैं । और जो जीव त्रस पर्याय धारण करके निगोद पर्यायमें चले जाते हैं उन्हें इतर निगोदिया कहते हैं । साधारण वनस्पतिकी तरह प्रत्येक वनस्पतिके भी दो भेद हैं-सप्रतिष्ठित प्रत्येक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक । जिस प्रत्येक वनस्पतिके शरीरमें बादर निगोदिया जीवोंका आवास हो उसे सप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं और जिस प्रत्येक वनस्पतिके शरीरमें बादर निगोदिया जीवोंका वास न हो उसे अप्रतिष्ठित प्रत्येक कहते हैं। प्रत्येक वनस्पतिका वर्णन ग्रन्थकारने आगे खयं किया है ॥ १२६ ॥ अब सूक्ष्म और बादर की पहचान बतलाते हैं । अर्थ-जिन जीवोंका पृथ्वीसे, जलसे, आगसे, और वायुसे प्रतिघात नहीं होता उन्हें सूक्ष्मकायिक जीव जानो।
और जिनका इनसे प्रतिघात होता है उन्हें स्थूलकायिक जीव जानो ॥ भावार्थ-पांच प्रकारके स्थावर कायोंमें ही बादर और सूक्ष्म भेद होता है। त्रसकायिक जीव तो बादर ही होते हैं। जो जीव न पृथ्वीसे रुकते हैं, न जलसे रुकते हैं, न आगसे जलते हैं और न वायुसे टकराते है, सारांश यह कि वज्रपटल वगैरहसे भी जिनका रुकना सम्भव नहीं है-उन जीवोंको सूक्ष्मकायिक जीव कहते हैं । और जो दीवार वगैरहसे रुक जाते हैं, पानीके बहावके साथ बह जाते हैं, अग्निसे जल जाते हैं और वायुसे टकराते हैं वे जीव बादरकायिक कहे जाते हैं ॥ १२७ ॥ अब प्रत्येक वनस्पतिका स्वरूप बतलाते हैं ।
१ म पुहई, ल ग पुहवी। २ ब जाणि। ३ ब धुणु। ४ ब सहिया। ५ ब हुंति । ६ साहारणाणि इत्यादि गाथा (१२६) व पुस्तकेऽत्र 'आहारुउसास्स आउ काऊणि' इति पाठान्तरेण पुनरुक्ता दृश्यते ।
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