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खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा .
[गा० १२१दीसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भण्णदे लोओ।
तस्स सिहरम्मि सिद्धा अंत-विहीणा विरायते ॥ १२१ ॥ [छाया-दृश्यन्ते यत्र अर्थाः जीवादिकाः स भण्यते लोकः । तस्य शिखरे सिद्धाः अन्तविहीनाः विराजन्ते ॥] स लोकः भण्यते, यत्र जीवादिकाः अर्थाः जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालरूपपदार्थाः द्रव्याणि षट् दृश्यन्ते लोक्यन्ते इति स लोकः कथ्यते सर्वज्ञैः । तस्य लोकस्य शिखरे तनुवातमध्ये सिद्धाः सिद्धपरमेष्ठिनः द्रव्यभावनोकर्मरहिता निरञ्जनाः परमात्मानः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणोपेताः विराजन्ते शोभन्ते । कथंभूतास्ते सिद्धाः । अन्तविहीना विनाशरहिताः, अथवा अनन्तानन्तमानोपेताः सन्ति ॥ १२१॥ अत्र च कैः कैजीवैभृतो लोक इति चेदुच्यते
एइंदिएहिँ भरिदो पंच-पयारेहिँ सबदो लोओ।
तस-णाडीऐ वि तसा ण बाहिरा होंति सवत्थ ॥ १२२ ॥ [छाया-एकेन्द्रियैः भृतः पञ्चप्रकारैः सर्वतः लोकः । वसनाज्याम् अपि त्रसा न बाह्याः भवन्ति सर्वत्र ॥] लोकः त्रिभुवनम्, सर्वतः श्रेणिघने, त्रिचत्वारिंशदधिकत्रिशत ३४३ रजप्रमाणे पञ्च प्रकारैः पञ्चविधैः एकेन्द्रियैः प्रथिव्यप्तेजोवायवनस्पतिकायिकै वैर्धतः । तर्हि त्रसाः क्व तिष्ठन्तीति चेत् . त्रसनाड्यामपि । तस्यैव लोकस्य मध्ये पुनरुदूखलस्य मध्याधो भागे छिद्रे कृते सति निक्षिप्तवंशनलिकेव चतुःकोणा त्रसनाडी भवति । सा चैकरजूविष्कम्भा चतुर्दशरजूत्सेधा विज्ञेया, तस्यां त्रसनाड्यामेव प्रसाः द्विचतुःपञ्चेन्द्रिया जीवा भवन्ति तिष्ठन्ति । " बाहिरा होंति तुलनामें एक लाख योजन ऐसेही हैं, जैसे पर्वतकी तुलनामें राई । अतः उन्हें अलग नहीं किया है । यथार्थमें ऊर्चलोककी ऊँचाई एक लाख चालीस योजन कम सातराजू जाननी चाहिये ॥ १२०॥ लोकशब्दकी निरुक्ति कहते हैं । अर्थ-जहाँपर जीव आदि पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । उसके शिखरपर अनन्त सिद्धपरमेष्टी विराजमान हैं । भावार्थ-'लोक' शब्द 'लुक्' धातुसे बना है, जिसका अर्थ देखना होता है । अतः जितने क्षेत्रमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छहों द्रव्य देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । ["धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोकः।" सर्वार्थ०, पृ. १७६ ] लोकके मस्तक पर तनुवातवलयमें कर्म और नोकर्मसे रहित तथा सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे सहित सिद्धपरमेष्ठी विराजमान हैं । जो अन्तरहित-अविनाशी हैं, अथवा जो अन्तरहितअनन्त हैं ॥ १२१ ।। जिन जीवोंसे यह लोक भरा हुआ है, उन्हें बतलाते हैं । अर्थ-यह लोक पाँच प्रकारके एकेन्द्रिय जीवोंसे सर्वत्र भरा हुआ है। किन्तु त्रसजीव त्रसनालीमें ही होते हैं, उसके बाहर सर्वत्र नहीं होते ॥ भावार्थ-पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक, ये पाँच प्रकारके एकेन्द्रिय जीव ३४३ राजू प्रमाण सभी लोकमें भरे हुए हैं । किन्तु त्रस अर्थात् दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय जीव वसनालीमें ही पाये जाते हैं । उदूखल [ कोशकारोंने उदूखलका अर्थ ओखली और जूगुलवृक्ष किया है । यहा वृक्ष लेना ठीक प्रतीत होता है, क्योंकि त्रिलोकप्रज्ञप्ति तथा त्रिलोकसारमें त्रसनालीकी उपगा वृक्षके सार अर्थात् छाल वगैरह के मध्यमें रहनेवाली लकड़ीसे दी है । अनु० ] के बीचमें छेदकरके उसमें रखी हुई बाँसकी नलीके समान लोकके मध्यमें चौकोर त्रसनाली है । उसीमें त्रसजीव रहते हैं। [उपपाद और मारणान्तिक समुद्घातके सिवाय त्रसजीव उससे बाहर नहीं रहते हैं "उववादमारणंतियपरिणदतसमुज्झिऊण सेसतसा । तसणालिबाहिरम्हि य
१ब भण्ण। २ ल म स ग विरायति । ३ अनु वा अन् इति मूलपाठ। ४ बस 'दिएहि । ५ब नाडिए ।
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