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________________ -११८] १०. लोकानुप्रेक्षा पर्यायरूपेण परिणमनात् लोकस्यापि परिणामं परिणमनं पर्यायरूपेण कथंचित् अनित्यत्वं सपर्यायत्वं च मन्यख जानीहि विद्धि । ननु यत्र नित्यत्वं प्रागुक्तं तत्रानित्यत्वं कथं विरोधात् इति चेन्न, वस्तुनः अनेकान्तात्मकत्वं सत्त्वात् । अय द्रव्याणां नित्यत्वेनानित्यत्वेन कि नाम पर्याया इति चेदाह । जीवद्रव्यस्य नरनारकादिविभावव्यञ्जनपर्यायाः, पुद्गलस्य शब्दषन्धसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्दयोतसहिताः विभावव्यञ्जनपर्याया भवन्ति । एवमन्येषामपि ज्ञेयम् ॥११७ ॥ अथ लोकस्य परपरिकल्पितस्थानमानविप्रतिपत्तिनिरासार्थमाह सत्तेक-पंच-इक्का मूले मज्झे तहेव बंभंते । लोयंते रजूओ पुवावरदो य वित्थारो ॥ ११८॥ अत्थपजया वियणपज्जया चावि । तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवदि दव्वं ॥५५१॥" अर्थ-एकद्रव्यमें त्रिकालसम्बन्धी जितनी अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय हैं, उतना ही द्रव्य है । अर्थात् त्रिकालवर्ती पर्यायोंको छोड़कर द्रव्य कोई चीज नहीं है । अनु० ] शङ्का-जो नित्य है, वह अनित्य किसप्रकार हो सकता है ? नित्यता और अनित्यतामें परस्परमें विरोध है । उत्तर-वस्तु अनेकधर्मात्मक होती है, क्यों कि वह सत् है । यदि एकवस्तुमें उन अनेकधर्मोको अपेक्षाभेदके विना योंही मान लिया जाये तो उनमें विरोध हो सकता है। किन्तु भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे विरोधी दिखाई देनेवाले धर्म भी एक स्थानपर विना किसी विरोधके रह सकते हैं । जैसे, पिता, पुत्र, भ्राता, जामाता आदि लौकिक सम्बन्ध परस्परमें विरोधी प्रतीत होते हैं । किन्तु भिन्न भिन्न सम्बन्धियोंकी अपेक्षासे यह सभी सम्बन्ध एकही मनुष्यमें पाये जाते हैं । एकही मनुष्य अपने पिताकी अपेक्षासे पुत्र है,. अपने पुत्रकी अपेक्षासे पिता है अपने भाईकी अपेक्षासे भ्राता है, और अपने श्वरशुकी अपेक्षासे जामाता है। इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य द्रव्यरूपसे नित्य है, क्योंकि द्रव्यका नाश कभी भी नहीं होता। किन्तु प्रतिसमय उसमें परिणमन होता रहता है, जो पर्याय एकसमय में होती है, वही पर्याय दूसरे समयमें नहीं होती, जो दूसरे समयमें होती है वह तीसरे समयमें नहीं होती, अतः पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य है । पर्याय दो प्रकारकी होती हैं, एक व्यञ्जनपर्याय और दूसरी अर्थपर्याय । इन दोनों प्रकारोंकेभी दो दो भेद होते हैं-खभाव और विभाव । जीवद्रव्यकी नर, नारक आदि पर्याय विभाव व्यञ्जनपर्याय है, और पुद्गलद्रव्यकी शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, खण्ड, अन्धकार, छाया, धूप, चांदनी वगैरह पर्याय विभावव्यञ्जन पर्याय हैं । [प्रदेशवत्त्वगुणके विकारको व्यञ्जनपर्याय और अन्य शेष गुणोंके विकारको अर्थपर्याय कहते हैं। तथा जो पर्याय परसम्बन्धके निमित्तसे होती है उसे विभाव, तथा जो परसम्बन्धके निमित्तके विना खभावसे ही होती है उसे खभावपर्याय कहते हैं । हम चर्मचक्षुओंसे जो कुछ देखते हैं, वह सब विभाव व्यञ्जन पर्याय है । अनु० ] सारांश यह है कि द्रव्योंके समूहका ही नाम लोक है । द्रव्य नित्य हैं, अतः लोक भी नित्य है । द्रव्य परिणामी हैं, अतः लोक भी परिणामी है ॥ ११७ ॥ अर्थपूरब-पश्चिम दिशामें लोकका विस्तार मूलमें अर्थात् अधोलोकके नीचे सात राजू है । अधोलोकसे ऊपर क्रमशः घटकर मध्यलोकमें एक राजूका विस्तार है । पुनः क्रमशः बढ़कर ब्रह्मलोक वर्गके अन्तमें पाँच राजूका विस्तार है । पुनः क्रमशः घटकर लोकके अन्तमें एकराजूका विस्तार है । भावार्थ-लोक पुरुषाकार है । कोई पुरुष दोनों पैर फैलाकर और दोनों हाथोंको कटिप्रदेशके दोनों १ ल ग सत्तेक, म सत्तिक, स सतेक। २ ग पुब्वापरदो। कात्तिके०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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