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९. निर्जरानुप्रेक्षा उघसम-भाव-तवाणं जह जह वड्डी' हवेई साहूणं ।
तह तह णिज्जर-वड्डी' विसेसदो धम्म-सुक्कादो ॥ १०५ ॥ [छाया-उपशमभावतपसां यथा यथा वृद्धिः भवति साधोः । तथा तथा निर्जरावृद्धिः विशेषतः धर्मशुक्लाभ्याम् ॥] साधूनां योगिनां, यथा यथा येन येन प्रकारेण, उपशमभावतपसाम् उपशमभावस्य उपशमसम्यक्त्वादेः तपसाम अनशनादीनां वृद्धिर्वधनं भवेत् , तथा तथा तेन तेन प्रकारेण निर्जरावृद्धिर्जायते, असंख्यातगुणा कर्मनिर्जरा स्यात्, धर्मशुक्लाभ्यां धर्मध्यानात् आज्ञापायविपाकसंस्थान विचयभेदभिन्नात्, शुक्लध्यानाच्च पृथकवितर्कविचारादेः, विशेषतः असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा कर्मणां निर्जरा जायते १०५॥ अथैकादशनिर्जराणां स्थाननियम गाथात्रयेण निर्दिशति
मिच्छादो सदिट्टी असंख-गुण-कम्म-णिज्जरा होदि । तत्तो अणुवय-धारी तत्तो य महबई णाणी ॥ १०६ ॥ पढम-कसाय-चउण्हं विजोजओ तह य खवय-सीलो य । दंसण-मोहतियस्स य तत्तो उवसमग-चत्तारि ॥१०७ ॥ खवगो य खीण-मोहो सजोइ-णाहो तहाँ अजोईया।
एदेउवरिं उवरिं असंख-गुण-कम्म-णिज्जरया ॥ १०८॥ [छाया-मिथ्वात्वतः सदृष्टिः असंख्यगुणकर्मनिर्जरो भवति । ततः अणुव्रतधारी ततः च महाव्रती ज्ञानी ॥ प्रथमकषायचतुणां वियोजकः तथा च क्षपकशीलः च । दर्शनमोहत्रिकस्य च ततः उपशमकचत्वारः ॥क्षपकः च क्षीणमोहः सयोगिनाथः तथा अयोगिनः । एते उपरि उपरि असंख्यगुणकर्मनिरकाः ॥] प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्ती करणत्रयपरिणामचरमसमये वर्तमानविशुद्धविशिष्टमिथ्यादृष्टेः आयुर्वर्जितज्ञानावरणादिसप्तकर्मणां यद्गुणश्रेणिनिर्जराद्रव्यं, अब निर्जराकी वृद्धिको दिखलाते है । अर्थ-साधुओंके जैसे जैसे उपशमभाव और तपकी वृद्धि होती है, वैसे वैसे निर्जराकी भी वृद्धि होती है । धर्मध्यान और शुक्लध्यानसे विशेषकरके निर्जराकी वृद्धि होती है ॥ भावार्थ-जैसे जैसे साधुजनोंमें साम्यभाव और तपकी वृद्धि होती है, अर्थात् साम्यभावके आधिक्यके कारण मुनिगण तपमें अधिक लीन होते हैं, वैसे वैसे कौकी निर्जरा भी अधिक होती है । किन्तु, आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नामके धर्मध्यानसे तथा पृथक्त्ववितर्कविचार, एकत्ववितर्कविचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृती नामके शुक्लध्यानसे कर्मोंकी और भी अधिक निर्जरा होती है। सारांश यह है, कि ध्यानमें कर्मोको नष्ट करनेकी शक्ति सबसे अधिक है ॥ १०५ ॥ तीन गाथाओंसे निर्जराके ग्यारह स्थानोंको बतलाते हैं। अर्थ-मिथ्यादृष्टिसे सम्यग्दृष्टीके असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है । सम्यग्दृष्टि से अणुव्रतधारीके असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है । अणुव्रतधारीसे ज्ञानी महाव्रतीके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। महाव्रतीसे अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करनेवालेके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे दर्शनमोहनीयका क्षपण-विनाश करनेवालेके असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है । उससे उपशमश्रेणिके आठवें, नौवें तथा दसवें गुणस्थानमें चारित्रमोहनीयका उपशम करनेवालेके असंख्यात गुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे ग्यारहवें गुणस्थान वाले उपशमकके असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। उससे क्षपकश्रेणिके आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानमें चारित्रमोहनीयका क्षय करने वालेके
१म जुट्टी। २ ब हवह। ३ द वुड्ढी । ४ प असंख्यागुणा। ५स खवइ । ६ ब उवसमग्ग। ७ब सयोगिणाहो, म सजोयणाणो । ८ ब तह अयोगी य। ९द पदो।
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