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खामिकार्तिकैयानुप्रेक्षा
[गा०८९सत्यादयश्चत्वारः, काययोगा औदारिकादयः सप्त । कीदृक्षास्ते । जीवप्रदेशानाम् आत्मप्रदेशानां लोकमात्राणां स्पन्दनविशेषाः चलनरूपाः । तत्र केचन मिथ्यादृष्ट्यादिसूक्ष्मसांपरायगुणस्थानपर्यन्तानां जीवानां योगाः मोहोदयेन अष्टाविंशतिमेदभिन्नमोहकर्मविपाकेन युक्ताः । अपि पुनः । ततः उपरि त्रिषु गुणस्थानेषु तेन मोहोदयवियुक्ता रहिताः आस्रवाः, आस्रवन्ति संसारिणं जीवमिति आस्रवाः, भवन्ति ॥ ८८॥
मोह-विवाग-वसादो जे परिणामा हवंति जीवस्स ।
ते आसवा मुणिज्जसुमिच्छत्ताई अणेय-विहा ॥ ८९॥ [छाया-मोहविपाकवशात् ये परिणामाः भवन्ति जीवस्य । ते आस्रवाः जानीहि मिथ्यात्वादयः अनेकविधाः ॥] जीवस्य संसारिणः ते प्रसिद्धाः मिथ्यात्वादयः, मिथ्वात्व ५, अविरति १२, कषाय २५, योगाः १५, अनेकविधाः शुभाशुभभेदेन बहुप्रकाराः, तान् आस्रवान् मन्यख, हे भव्य, त्वं जानीहि । ते के। ये जीवस्य भावाः परिणामा भवन्ति । कुतः । मोहविपाकवशात् मोहनीयकर्मोदयवशात् ॥ ८९ ॥
कम्मं पुण्णं पावं हे तेसिं च होंति सच्छिदरा।।
मंद-कसाया सच्छा तिव-कसाया असच्छा हु॥९॥ काययोग। मनोवर्गणाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो हलन चलन होता है, उसे मनोयोग कहते हैं । वचनवर्गणाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो हलन चलन होता है, उसे वचनयोग कहते हैं ।
और कायवर्गणाके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमें जो परिस्पंद होता है, उसे काययोग कहते हैं । मनोयोगके चार भेद हैं-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग और अनुभयमनोयोग । वचनयोगके भी चार भेद है-सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग और अनुभयवचनयोग । काययोगके सात भेद हैं-औदारिककाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियिककाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कार्मणकाययोग । योग तेरहवें गुणस्थानतक होता है, और मोहनीयकर्मका उदय दसवें गुणस्थानतक होता है। अतः दसवें गुणस्थानतक तो योग मोहनीयकर्मके उदयसे सहित होता है । किन्तु उसके आगे ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें जो योग रहता है, वह मोहनीयकर्मके उदयसे रहित होता है ।। ८८ ॥ अर्थ-मोहनीयकर्मके उदयसे जीवके जो अनेक प्रकारके मिथ्यात्व आदि परिणाम होते हैं, उन्हें आस्रव जानो। भावार्थआस्रवपूर्वक ही बन्ध होता है। बन्धके पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । इनमेंसे योगके सिवाय शेष कारण मोहनीयकर्मके उदयसे होते हैं । और मोहनीयकर्मका उदय दसवें गुणस्थानतक रहता है । दसवें गुणस्थानमें मोहनीयकर्मकी बन्धव्युच्छित्ति होजानेसे ग्यारहवें आदि गुणस्थानोंमें योगके द्वारा केवल एक सातावेदनीयका ही बन्ध होता है । शेष ११९ प्रकृतियाँ मोहनीयकर्मजन्य भावोंके ही कारण बंधती हैं । अतः यद्यपि आस्रवका कारण योग है, तथापि प्रधान होनेके कारण योगके साथ रहनेवाले मोहनीयकर्मके मिथ्यात्व आदि भावोंको भी आस्रव कहा है ॥ ८९ ॥ अर्थ-कर्म दो तरह के होते हैं—पुण्य और पाप । पुण्यकर्मका कारण शुभास्रव कहाता है और पापकर्मका कारण अशुभास्रव कहाता है । मन्दकषायसे जो आस्रव होता है, वह शुभास्रव है और तीव्रकषायसे जो आस्रव होता है, वह अशुभास्रव है ॥ भावार्थ-कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमेंसे प्रत्येककी चार जातियाँ होती हैं । अनन्तानुबन्धी,
१स मुणिजहु। २ बम मिच्छताइ। ३ग हेउ [हेक]।
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