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________________ XII भविष्यवक्ता, निमित्तज्ञानी __श्रीमद्जीका ज्योतिष-संबंधी ज्ञान भी प्रखर था । वे जन्मकुंडली, वर्षफल एवं अन्य चिह्न देख कर भविष्यकी सूचना कर देते थे। श्री जूठाभाई (एक मुमुक्षु) के मरणके बारेमें उन्होंने सवा दो मास पूर्व स्पष्ट बता दिया था । एक बार सं० १९५५ की चैत वदी ८ को मोरबीमें दोपहरके ४ बजे पूर्व दिशाके आकाशमें काले बादल देखे और उन्हें दुष्काल पडनेका निमित्त जानकर उन्होंने कहा- “ऋतुको सन्निपात हुआ है।" तदनुसार सं० १९५५ का चौमासा कोरा रहा और सं० १९५६ में भयंकर दुष्काल पडा । श्रीमद्जी दूसरेके मनकी बातको भी सरलतासे जान लेते थे। यह सब उनकी निर्मल आत्मशक्तिका प्रभाव था। कवि-लेखक __ श्रीमद्जीमें, अपने विचारोंकी अभिव्यक्ति पद्यरूपमें करनेकी सहज क्षमता थी। उन्होंने 'स्त्रीनीतिबोधक', 'सदबोधशतक', 'आर्यप्रजानी पडती', 'हन्नरकला वधारवा विष आदि अनेक कविताएँ केवल आठ वर्षकी वयमें लिखी थीं । नौ वर्षकी आयुमें उन्होंने रामायण और महाभारतकी भी पद्यरचना की थी जो प्राप्त न हो सकी। इसके अतिरिक्त जो उनका मूल विषय आत्मज्ञान था उसमें उनकी अनेक रचनाएँ हैं। प्रमुखरूपसे 'आत्मसिद्धि', 'अमूल्य तत्त्वविचार', 'भक्तिना वीस दोहरा', 'परमपदप्राप्तिनी भावना (अपूर्व अवसर)', 'मूलमार्ग रहस्य', 'तृष्णानी विचित्रता' है। ‘आत्मसिद्धि-शास्त्र के १४२ दोहोंकी रचना तो श्रीमद्ीने मात्र डेढ घंटेम नडियादम आश्विन वदी १ (गुजराती) सं० १९५२ को २९ वर्षकी उम्रमें की थी। इसमें सम्यग्दर्शनके कारणभूत छः पदांका बहुत ही सुन्दर पक्षपातरहित वर्णन किया है । यह कृति नित्य स्वाध्यायकी वस्तु है । इसके अंग्रेजीम भी गद्य पद्यात्मक अनुवाद प्रगट हो चुके हैं। गद्य-लेखनमें श्रीमद्जीने 'पुष्पमाला', 'भावनावोध' और 'माक्षमाला'की रचना की । इसम ‘माक्षमाला' तो उनकी अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है जिसे उन्होंने १६ वर्ष ५ मापकी आयुमं मात्र तीन दिनम लिखी थी। इसमें १०८ शिक्षापाट हैं। आज तो इतनी आयुमें शुद्ध लिखना भी नहीं आता जब कि श्रीमद्ीने एक अपूर्व पुस्तक लिख डाली। पूर्वभवका अभ्यास ही इसमें कारण था । ‘माक्षमाला'के संबंधम श्रीमर्जी लिखते हैं- "जैनधर्मको यथार्थ समझानेका उसमें प्रयास किया है । जिनोक्त मार्गस कुछ भी नयूनाधिक उसम नहीं कहा है । वीतराग मार्गमे आबालवृद्धकी रुचि हो, उसके स्वरूपको समझे तथा उसके बीजका हृदयम रोपण हो, इस हेतुसे इसकी वालावबोधरूप योजना की है " श्री कुन्दकुन्दाचार्यके 'पंचारितकाय' ग्रन्थकी मूल गाथाओंका श्रीमद् ने अविकल (अक्षरशः) गुजराती अनुवाद भी किया है । इसके अतिरिक्त उन्होंने श्री आनन्दघनजीकृत चौबीसीका अर्थ लिखना भी प्रारम्भ किया था, और उसमें प्रथम दो स्तवनाका अर्थ भी किया था; पर वह अपूर्ण रह गया है। फिर भी इतने से, श्रीमद्जीकी विवेचन शैली कितनी मनोहर और तलस्पर्शी है उसका ख्याल आ जाता है। सूत्रोंका यथार्थ अर्थ समझने-समझानेमें श्रीमद्जीकी निपुणता अजोड थी। मतमतान्तरके आग्रहसे दूर श्रीमद्जीकी दृष्टि बडी विशाल थी। वे रूढि या अन्धश्रद्धाके कट्टर विरोधी थे । वे मतमतान्तर और कदाग्रहादिसे दूर रहते थे, वीतरागताकी ओर ही उनका लक्ष्य था । उन्होंने आत्मधर्मका ही उपदेश दिया । इसी कारण आज भी भिन्न-भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनाका रुचिपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं। श्रीमद्जी लिखते हैं "मूलतत्त्वमें कहीं भी भेद नहीं है, मात्र दृष्टिका भेद है ऐसा मानकर आशय समझकर पवित्र धर्ममें प्रवृत्ति करना ।" (पुष्पमाला -१४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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