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खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा०७४ ४. एकत्वानुप्रेक्षा अथैकत्वानुप्रेक्षा गाथाषट्केनाह
इको जीवो जायदि एक्को गम्भम्हि गिण्हदे देहं ।
इको बाल-जुवाणो इक्को वुड्डो जरा-गहिओ ॥७४॥ - [छाया-एकः जीवः जायते एकः गर्भे गृह्णाति देहम् । एकः बालः युवा एकः वृद्धः जरागृहीतः ॥] जायते उत्पद्यते । कः। जीवः जन्तुरेक: अद्वितीय एव नान्यः । गृह्णाति अङ्गीकरोति । कम्। देहं शरीरम् । क्का गर्ने मातृजठरे । एक एव बालः शिशुः, एक एव युवा यौवनेनात्यन्तशाली, एक एव वृद्धः जरागृहीतः स्थविरः जराजर्जरितः एक एव ॥ ४ ॥
इको रोई सोई इको तप्पेइ माणसे दुक्खे ।
इको' मरदि वराओ णय-दुहं सहदि इक्को वि ॥७५॥ [छाया-एकः रोगी शोकी एकः तप्यते मानसे दुःखे । एकः म्रियते वराकः नरकदुःखं सहते एकोऽपि ॥] एक एव जीवः रोगी रोगाक्रान्तः । एक एव शोकी शुचाक्रान्तः । मानसैर्दुःखैः तप्यति तापं संतापं गच्छति । एक एव नियते मरणदुःखं प्राप्नोति । एक एव वराकः दीनः जीवः नरकदुःखं रत्नप्रभादिदुस्सहवेदनादुःखं सहते क्षमते ॥ ७५ ॥
इक्को' संचदि पुण्णं एक्को भुजेदि विविह-सुर-सोक्खं ।
इको खवेदि कम्मं इको' वि य पावएँ मोक्खं ॥ ७६ ॥ [छाया-एकः संचिनोति पुण्यम् एकः भुनक्ति विविधसुरसौख्यम् । एकः क्षपयति कर्म एकोऽपि च प्राप्नोति मोक्षम् ॥ एक एव पुण्यं शुभकर्म सम्यक्त्वं व्रतदानादिलक्षणं संचिनोति संग्रहीकरोति । एक एव भक्त विविधसूरसौख्यं चतुर्णिकायदेवानाम् अनेकप्रकारसुखम् । एक एव क्षपकश्रेण्यामारूढः सन् कर्म ज्ञानावरणादिक 'क्षपयति क्षयं करोति । अपि पुनः, एक एव सकलकर्मविप्रमुक्तः सन् मोक्ष सकलकर्मविप्रमुक्ति प्राप्नोति लभते ॥ ६ ॥
सुयणो पिच्छंतो वि हु ण दुक्ख-लेसं पि सक्कदे गहिदुं । एवं जाणंतो वि हु तो वि ममत्तंण छंडेई ॥ ७७॥
छह गाथाओंसे एकत्वानुप्रेक्षाको कहते हैं । अर्थ-जीव अकेला ही उत्पन्न होता है, अकेला ही माताके उदरमें शरीरको ग्रहण करता है, अकेला ही बालक होता है, अकेला ही जवान होता है, और अकेला ही बुदापेसे बूढ़ा होता है ॥ ७४ ॥ अर्थ-अकेला ही रोगी होता है, अकेला ही शोक करता है, अकेला ही मानसिक दुःखसे संताप पाता है, अकेला ही मरता है, और बेचारा अकेला ही नरकके असह्य दुःखको सहता है ।। ७५॥ अर्थ-अकेला ही पुण्यका संचय करता है, अकेला ही देवगतिके अनेक प्रकारके सुखोंको भोगता है । अकेला ही कर्मका क्षय करता है, और अकेला ही मुक्तिको प्राप्त करता है ।। ७६॥ अर्थ-कुटुम्बीजन देखते हुए मी दुःखके लेशमात्रको भी ग्रहण करनेमें समर्थ नहीं होते हैं । किन्तु ऐसा जानते हुए भी ममत्वको नहीं छोड़ता है । भावार्थयह जीव जानता है, कि जब मुझे कोई कष्ट सताता है तो कुटुम्बीजन उसे देखते हुए भी बाँट नहीं सकते हैं । शरीरमें पीड़ा होनेपर उसका कष्ट मुझे ही भोगना पड़ता है, अन्य वस्तुओंकी तरह उसमें कोई चाहनेपर भी हिस्सावार नहीं कर सकता। किन्तु फिर भी माता, पिता, भाई, पुत्र वगैरह कुटुम्बियोंसे
१० मसग को। २ब गम्भम्मि...देहो। ३ बएको। ४ ब निरय। ५व एको। ६० मसग को। ७चम पावर। ८स छेडेइ ।
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