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________________ २६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ५७ संपदा युक्तः राजापि भूपतिरपि भृत्यः सेवको भवति च पुनः, भृत्योऽपि दासोऽपि नरनाथः समस्त पृथ्वीपालको राजा काष्ठाङ्गारवत् भवति ॥ ५६ ॥ सत्तू वि होदि मित्तो मत्तो वि य जायदे तहा सत्तू । कम्म-विवा-वसादो एसो संसार - सब्भावो ॥ ५७ ॥ [ छाया - शत्रुः अपि भवति मित्रं मित्रमपि च जायते तथा शत्रुः । कर्मविपाकवशतः एष संसारस्वभावः ॥ ] शत्रुरपि धैर्यपि मित्र सखा भवति । रामस्य विभीषणवत् । अपि च तथापि मित्रमपि शत्रुः वैरी जायते । रावणस्य विभीषणवत् । कुतः । कर्मविपाकवशात् कर्मणामुदयवशात् । एष पूर्वोक्तः संसारसद्भावः संसारखरूपम् ॥ ५७ ॥ अथ देवगतिस्वरूपं विवृणोति - अह कह वि हवदि देवो तस्स वि' जाएदि माणसं दुक्खं । दण महीणं' देवाणं रिद्धि-संपत्ती ॥ ५८ ॥ [ छाया - अथ कथमपि भवति देवः तस्यापि जायते मानसं दुःखम् । दृष्ट्वा महद्धीनां देवानां ऋद्धिसंप्राप्तिम् ॥ ] अह अथवा, कथमपि महता कष्टेन भवति जायते । कः । देवः चतुर्णिकायदेवः । तस्य च देवस्य जायते उत्पद्यते । किं तत् । मानसं मनोभवं दुःखम् असातम् । किं कृत्वा । दृष्ट्वा अवलोक्य । काः । ऋद्धिसंपत्तीः ऋद्धीनां वैक्रियादीनां संपत्तीः संपदाः । केषाम् । देवानां सुराणां महर्द्धिकानाम् इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशादिसुराणाम् ॥ ५८ ॥ - विओi - दुक्खं होदि महड्डीर्णे विसय-तण्हादो । विसय-वसादो सुक्खं जेसिं तेसिं कुदो तित्ती ॥ ५९ ॥ मनमें धूर्तता आई और उसने राजद्रोही बनकर राजमहलको जा घेरा। उस समय रानी गर्भवती थी । राजाने रानीको तो मयूरयंत्र में बैठाकर आकाशमार्गसे चलता कर दिया और स्वयं युद्धमें मारा गया । मयूरयंत्र रानीको लेकर स्मशानभूमिमें जा गिरा और वहींपर रानीने पुत्र प्रसत्र किया । इस घटनाका वर्णन करते हुए क्षत्रचूडामणिकारने ठीक ही कहा है, कि प्रातः कालके समय जिस रानीकी पूजा स्वयं राजाने की थी, सन्ध्याके समय उसी रानीको स्मशानभूमि की शरण लेनी पड़ी । अतः समझदारों को पापसे डरना चाहिये ॥ ५६ ॥ अर्थ - कर्मके उदयके कारण शत्रु भी मित्र हो जाता है और मित्र भी शत्रु हो जाता है । यही संसारका स्वभाव है ॥ भावार्थ - इस संसार में सब कुछ कर्मका खेल है | शुभ कर्मका उदय होनेसे शत्रु भी मित्र हो जाता है । जैसे, रावणका भाई विभीषण रामचंद्रजीका मित्र बन गया था । और अशुभ कर्मका उदय होनेसे मित्र भी शत्रु हो जाता है । जैसे, वही विभीषण अपने सहोदर रावणका ही शत्रु बनगया था । संसारका यही नग्न स्वरूप है ॥ ५७ ॥ अब देवगतिका स्वरूप कहते हैं । अर्थ - अथवां जिस किसी तरह देव होता है, तो महर्द्धिक देवोंकी ऋद्धिसम्पदाको देखकर उसे मानसिक दुःखं होता है । भावार्थ - मनुष्यगतिसे निकलकर जिस किसी तरह बड़ा कष्ट सहकर देव होता है, क्योंकि देव पर्याय पाना सहज नहीं है, तो वहाँ भी अपनेसे बड़े महाऋद्धिके धारक इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि देवोंकी विभूतिको देखकर मन ही मन झुरता है ॥ ५८ ॥ अर्थ - महर्द्धिक देवोंको विषयसुखकी बड़ी तृष्णा होती है, अतः उन्हें भी अपने प्रिय देव-देवाङ्गनाओंके वियोगका दुःख होता है । जिनका सुख विषयोंके अधीन है, उनकी तृप्ति Jain Education International १ ब म स विवाय । २ ल म स ग य । ३ ल म सग महद्धीणं । ४ ब विउयं, म विओगे । ५ ब महड्डी, लम सग महद्धीण । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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