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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १४पुनः अथ च विशेषे, यः पुमान् संचिनोति संचयं करोति। काम् । लक्ष्मीम्।न च भुङ्क्ते न च भोगविषयीकरोति, पात्रेषु जघन्यमध्यमोत्तमपात्रेषु नैव ददाति न प्रयच्छति, स पुमान् आत्मानं खजीवं वश्चयति प्रतारयति, तस्य पुंसः मनुष्यत्वं निष्फलं वृथा भवेत् ॥ १३ ॥ ___ जो संचिऊण लच्छि ' धरणियले संठवेदि अइदूरे । सो पुरिसो तं लच्छि पाहाण-समाणियं कुणदि ॥१४॥ [छाया-यः संचित्य लक्ष्मी धरणितले संस्थापयति अतिदूरे । स पुरुषः तो लक्ष्मी पाषाणसमानिकां करोति ॥1 यः पुमान् संस्थापयति मुञ्चति । क्व । अतिदूरे अत्यर्थमधःप्रदेशे, धरणीतले महीतले । काम् । लक्ष्मी स्वर्णरत्नादिसंपदाम् । किं कृत्वा । संचयीकृत्य संग्रहं कृत्वा, स पुरुषः तां प्रसिद्धां निजां लक्ष्मी पाषाणसदृशीं करोति विधत्ते ॥१४॥ अणवरयं जो संचदि लच्छि ण य देदि णेय भुंजेदि। अप्पणिया वि य लच्छी पर-लच्छि-समाणिया तस्स ॥ १५ ॥ [छाया-अनवरतं यः संचिनोति लक्ष्मी न च ददाति नैव भुते। आत्मीयापि च लक्ष्मीः परलक्ष्मीसमानिका तस्य ॥] यः पुमान् अनवरतं निरन्तरं संचिनोति संग्रहं कुरुते। काम् । लक्ष्मी धनधान्यादिसंपदां, च पुनः, न ददाति न प्रयच्छति, नैव भुले भोगविषयीकुरुते, तस्य पुंसः आत्मीयापि च खकीयापि च लक्ष्मीः रमा परलक्ष्मीसमानित अन्यपुरुषलक्ष्मीसदृशी ॥ १५॥ लक्ष्मीका केवल संचय करता है, न उसे भोगता है और न जघन्य, मध्यम अथवा उत्तम पात्रोंमें दान देता है, वह अपनी आत्माको ठगता है और उसका मनुष्यपर्यायमें जन्म लेना वृथा है ॥ भावार्थ-मनुध्यपर्याय केवल धनसञ्चय करनेके लिये नहीं है । अतः जो मनुष्य इस पर्यायको पाकर केवल धन एकत्र करनेमें ही लगा रहता है, न उसे भोगता है और न पात्रदान में ही लगाता है, वह अपनेको ही ठगता है; क्योंकि वह धनसञ्चयको ही कल्याणकारी समझता है, और समझता है कि यह मेरे साथ रहेगा । किन्तु जीवनभर धनसञ्चय करके जब वह मरने लगता है तो देखता है कि उसके जीवनभर की कमाई वहीं पड़ी हुई है और वह उसे छोड़े जाता है तब वह पछताता है । यदि वह उस सञ्चित धनको अच्छे कामोंमें लगाता रहता तो उसके शुभ कर्म तो उसके साथ जाते । किन्तु उसने तो धनको ही सब कुछ समझकर उसीके कमानेमें अपना सारा जीवन गँवा दिया । अतः उसका मनुष्य-जन्म व्यर्थ ही गया ॥ १३ ॥ अर्थ-जो मनुष्य लक्ष्मीका सञ्चय करके पृथिवीके गहरे तलमें उसे गाड़ देता है, वह मनुष्य उस लक्ष्मीको पत्थरके समान कर देता है ॥ भावार्थ-प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य रक्षाके विचारसे धनको जमीनके नीचे गाड़ देते हैं । किन्तु ऐसा करके वे मनुष्य उस लक्ष्मीको पत्थरके समान बना देते हैं । क्यों कि जमीनके. नीचे ईंट पत्थर वगैरह ही गाड़े जाते हैं ॥ १४ ॥ अर्थ-जो मनुष्य सदा लक्ष्मीका संचय करता रहता है, न उसे किसीको देता है और न स्वयं ही भोगता है। उस मनुष्यकी अपनी लक्ष्मी भी पराई लक्ष्मीके समान है॥ भावार्थ-जैसे पराये धनको हम न किसी दूसरेको दे ही सकते हैं और न स्वयं भोग ही सकते हैं, वैसे ही जो अपने धनको भी न किसी दूसरेको देता है और न अपने ही लिये खर्च करता है, उसका अपना धन भी पराये धनके समान ही जानना चाहिये । वह तो उसका केवल रखवाला है ॥ १५ ॥ १ लच्छि इति पाठोऽनिश्चितः। २ बणेव । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002713
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorSwami Kumar
AuthorA N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages594
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Spiritual
File Size15 MB
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