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________________ 6- हे भगवन् ! न आप जगत् के दाता हो, न रक्षा करने वाले हो, न तेज को धारण करने वाले हो, न हरण करने वाले हो, न भरण-पोषण करने वाले हो, न दृष्टिगोचर हो, न किसी के वशव्रर्ती हो, न गुणज्ञ हो, न अगुणज्ञ हो, हे भगवन् ! मैं कैसे तुम्हें ध्याऊ अर्थात् आपका ध्यान कैसे करूँ ? वह कौन सा लक्ष्ण है जिसके द्वारा आपको ध्याया जाये अर्थात् आपका ध्यान किया जाये। 7- हे भगवन् ! आप भव्य जीवों को चिन्तामणि के समान स्वभाव से सम्यग्दर्शन को कैसे देते हो ? यदि आपका मत इसी प्रकार है कि आप भव्य जीवों को स्वभाव से ही देते हैं तो फिर आपकी सेवा का क्या फल है ? और यदि स्वभाव से ही देते हैं तो स्वभाव निश्चित रूप से तर्क का विषय नहीं बनता। 8- जो संसार रूप कूप में गिरते हुए भव्य जीवों को धर्म रूपी रस्सी के द्वारा उठाकर मुक्ति की ओर ले जाते हैं। तथा जो अनन्त ज्ञानादि स्वभाव रूप से ही परोपकारी हैं उन पार्श्व प्रभु के लिये बारम्बार नमस्कार नमस्कार हो। 9- हे पार्श्वनाथ भगवन् ! सभी लोग आपको अमोघ कहते हैं क्योंकि आप हाव-भाव कटाक्षों से युक्त स्त्रीयों से नहीं जीते गये। अतः सदा अजित रहे हैं। आपके चरण युगल लक्ष्मी के द्वारा पूजे गये चित्त की चंचलता को हरण करने वाले हैं तथा श्रेष्ठ हैं। 10- प्राणीगण सम्पूर्ण क्रियाओं के समूह को अज्ञान से अमोघ (कार्यकारी) कहते हैं। किन्तु वे सभी क्रियायें मुक्ति के लिये नहीं है इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान आपका उपदेश है । आपके निर्मल गुण इस संसार में पंचकल्याणकों के द्वारा अथवा पंचाचारों के उपदेश के द्वारा भव्य जीवों को प्रसन्न करते हैं। [4] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002709
Book TitleGyan Lochan evam Bahubali Stotram
Original Sutra AuthorVadirajkavi
AuthorRajendra Jain, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size2 MB
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