SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्पादकीय __एक ही माँ के गर्भ से उत्पन्न दो बालक, समान आहार, एक ही स्थान पर रहने पर भी उनकी शारीरिक और मानसिकयोग्ताओं में अन्तर देखा जाता है। एक प्रतिभा सम्पन्न, कार्यकुशल, व्यवहारकुशल आदिनानायोग्यताओं सहित और दूसरा इन सभी योग्यताओं से रहित देखा जाता है। यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि आखिर इस विविधता का जिम्मेदार कौन ? __ एक जन्म से ही सुन्दर, बलवान, सम्पूर्ण अङ्गोपाङ्ग सहित दूसरा जन्मांध, कुरूप, शक्तिहीन । इन दोनों में विविधता का कारण क्या? क्या ईश्वर कृत यह विविधता है यहीं प्रतिप्रश्न उत्पन्न होता है कि आखिर ईश्वर उन्हें एक सा क्यों नहीं बना देता? अन्त में विचारवान् मनुष्य का चित्त इस निर्णय पर पहुँचता है कि कोई अदृश्य शक्ति इन जीवधारियों के साथ जुड़ी हई है जो विभिन्नता उत्पन्न करने में कारण है। इसी शक्ति को जैन मनीषीओं ने 'कर्म' कहा है। कर्म का अर्थ एकमात्र क्रिया ही ग्रहण नहीं कर, उन सूक्ष्म पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करना चाहिए जो कि जीवनधारीकेद्वारा कीगई मन, वचन और काय की क्रिया के कारण खिंच कर जीव के प्रदेशों के साथ एकक्षेत्रावगाहित हो जाती हैं । यह लोक सूक्ष्म पुद्गल वर्गणाओं से भरा हुआ है। प्राणी के द्वारा जो भी मानसिक, वाचनिक, शारीरिक क्रिया निष्पन्न की जाती है । उसके फलस्वरूप ही वे सूक्ष्म पुद्गल वर्गणायें खिंचकर, जीवप्रदेशों के साथ संलग्न हो जाती है और जिस प्रकार हल्दी और चूना का मिश्रण करने पर तृतीय हो वर्ण की निष्पत्ति होती है। उसी प्रकार उन पुद्गल वर्गणाओं काजीव प्रदेशों के साथ एकमेव सम्बन्ध ही से पर तृतीय ही अवस्था उत्पन्न हो जाती है - यह जीव और पुद्गलों का सम्बन्धकोई नया नहीं हुआ किन्तु अनादिकालीन है - उन्हीं पुद्गलों में से कुछ नवीन पुद्गल वर्गणाओं का संयोग और कुछ का वियोग होता रहता है - यही परम्परा निरन्तर कायम रहती है। इसी के फलस्वरूप संसारी प्राणी भव से भवान्तर, हीनाधिक ज्ञान, सुख-दुःख सामग्री इत्यादि फलों को प्राप्त करता रहता है। जीव के जिन भावों के द्वारा वे पुद्गल वर्गणाएँ आती हैं - वे भाव भावकर्म संज्ञा से, और जो पुद्गल खिंचकर आते हैं वे द्रव्यकर्म कहलाते हैं द्रव्यकर्म और भावकर्म का सम्बन्ध बीजाङ्कर की तरफ सतत् कायम रहता है। ग्रहण की गई पुद्गलवर्गणायेंनानारूपसेपरिणत हो जाती हैं। वेज्ञान,दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों का आच्छादन करती हैं। यह प्रक्रिया ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार किया गया भोजन, नानाधातु और उपधातुओं के रूप में स्वभादिक ही परिणत हो जाता है। इन्हीं पुद्गल वर्गणाओं को मुख्य रूप आठ रूपों में विभाजित कर, अवान्तर 148 भेदों में वर्गीकरण किया गया है । जो पुद्गल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002707
Book TitlePrakruti Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinod Jain, Anil Jain
PublisherDigambar Sahitya Prakashan
Publication Year1998
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy