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जीव के सुख और दुःख का उत्पादक कर्म वेदनीय है। (ध.13/208) सुखं दुःखं वा इन्द्रियद्वारैर्वेदयतीति वेदनीयं गुडलिसखड्गधारावत्। गुड़-लपेटी तलवार की धारके समान जो सुख अथवा दुःख को इन्द्रियों द्वारा अनुभव कराये, वह वेदनीय कर्म है।
(क.प्र./3) विशेष - शंका - उस वेदनीयकर्मका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? समाधान - सुख और दुःखरूप कार्य अन्यथा हो नहीं सकते हैं, इस अन्यथानुपपत्तिसे वेदनीयकर्मका अस्तित्व जाना जाता है और कारणसे निरपेक्ष कार्य उत्पन्न होता नहीं क्योकि, अन्यत्र उस प्रकार देखा नहीं जाता
(ध.6/11) वेदनीय कर्म के भेद वेदणीयस्स कम्मस्सदुवे पयडिओ। सादावेदणीयं चेव असादावेदणीयं चेव। वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं - सातावेदनीय और असातावेदनीय
(ध. 6/34-35) सातावेदनीय
सत् सुखम् सदेव सातम् , यथा पंडुरमे, 'डुरं । सातं वेदयतीति सातवेदणीयं, दुक्खपडिकारहेदुदव्वसंपादयं दुक्खुप्पायण कम्मदव्वसत्ति विणासयं च कम्मं सादावेदणीयं णाम। 'सत्' का अर्थ सुख है इसका ही यहां सात शब्द से ग्रहण किया गया है, जैसे कि पाण्डुर को पाण्डुर शब्द से भी ग्रहण किया जाता है। सात का जो वेदन कराती है वह साता वेदनीय प्रकृति है । दुःख के प्रतीकार करने में कारणभूत सामग्री का मिलानेवाला और दुःख के उत्पादक कर्म द्रव्य की शक्ति का विनाश करने वाला कर्म सातावेदनीय कहलाता है।(ध. 13/357) सादं सुहं, तं वेदावेदि मुंजावेदि त्तिसादावेदणीयं । साता यह नाम सुख का है, उस सुख को जो वेदन कराता है, अर्थात् भोग कराता है, वह सातावेदनीय कर्म है।
(ध. 6/35) तत्रेन्द्रियसुखकारणचन्दनकर्पूरसृग्वनितादिविषयप्राप्तिकारणं सातावेदनीयम्। इन्द्रिय-सुख के कारण चन्दन, कर्पूर, माला, वनिता आदि विषयों की प्राप्ति जिससे हो, वह सातावेदनीय है।
(क.प्र./9) (13)
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