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प्रकृति-परिचय
वाग्देव्याः कुलमन्दिरं बुधजनानन्दैकचन्द्रोदयं, मुक्तेर्मङ्गल-मग्रिमं शिवपथप्रस्थानदिव्यानकम्। तत्त्वाभासकुरङ्गपञ्चवदनं भव्यान् विनेतुं क्षम, तच्छ्रोत्राञ्जलिभिः पिबन्तु गुणिनः सिद्धान्तवार्धेः पयः॥ जो सरस्वती देवी का कुलभवन है, विद्वज्जनों को आनन्द देने वाला अद्वितीय चन्द्रोदय है, मुक्ति का प्रधान मङ्गल है, मोक्षपथ पर प्रस्थान करने का दिव्य वादित्र है, मिथ्यातत्त्वरूप मृगों के लिए सिंहस्वरूप है तथा भव्यजीवों को शिक्षित करने के लिए समर्थ है, उस सिद्धान्त जिनागमरूप समुद्र के जल
को गुणी मनुष्य कर्णरूपी अञ्जलियों से पियें। प्रतिज्ञा वचन
इदाणिं पयडिसमुक्कित्तणं कस्सामो अब प्रकृतियों के स्वरूप का निरूपण करेंगे।
(ध. 6/5) प्रकृतिशब्द की व्युत्पत्ती
प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मनः इति प्रकृति शब्द व्युत्पत्तेः जिसके द्वारा आत्मा को अज्ञानादि फल रूप किया जाता है वह प्रकृति है। यह प्रकृति शब्द की व्युत्पत्ति है।
(ध. 12/303) प्रकृतियों के मुख्य विभाजन तं पिपयडिसमुक्कित्तणं, मूलुत्तरपयडिसमुक्कित्तणमेएण दुविहं होइ। वह प्रकृतिसमुत्कीर्तन भी मूल प्रकृति समुत्कीर्तन और उत्तरप्रकृति समुत्कीर्तन के भेद से दो प्रकार का है ।
(ध. 6/5) मूल प्रकृति के आठ भेद
णाणावरणीयं । दसणावरणीयं । वेदणीयं । मोहणीयं । आउअं । णाम । गोद। अंतरायं चेदि।......... अठेव मूलपयडीओ। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और
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