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अदृश्य ही क्यों न हो कार्य है तो उसका कारण नियामक है यह तो न्याय सर्वमान्य है फिर हम क्यों इसे मानने से दूर होने की कोशिश करे। एक बार नहीं बार-बार पढ़े। अध्ययन करके मात्र शाब्दिक जानकारी का ध्येय न हो किन्तु अपने व्यवहारिक जीवन में उस सिद्धान्त की तुलना करके। जहां बचने की आवश्यकता है उससे बचने का और जो करने योग्य है उसे करने का भरसक प्रयत्न करें तो निश्चित ही इस अल्पकृति के महान विषय का परिचय प्राप्त कर हमारे जीवन की कर्म मुक्त वास्तविक, स्वभाविक, प्राकृतिक अवस्था का परिचय प्राप्त कर लेंगे। और प्रकृति से परे अर्थात् कर्म से परे प्रकृतिमय अर्थात् स्वाभाविक जीवन जीये यही अन्तः प्रेरणा यही सद्भावना........ ।
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