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________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित ईर्यापथकर्म आदि सात कर्मों का निर्देश किया जाता है वह कर्मप्रवादपूर्व कहलाता है। पचक्खाण णिवत्ती दव्वं पज्जा णिरूविया जत्थ । चुलसीदीलक्खपयं पच्चक्खाणं णमंसामि ||46|| 8400000 अर्थ :- जिस श्रुत ज्ञान में चौरासी लाख पदों के द्वारा प्रत्याख्यान, नियम, द्रव्य, पर्याय निरूपित है उस प्रत्याख्यान पूर्व को मैं नमस्कार करता हूँ। विशेषार्थ - जिसमें व्रत, नियम, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, तप, कल्प, उपसर्ग, आचार, प्रतिमाविराधन, आराधन और विशुद्धि का उपक्रम, श्रमणता का कारण तथा द्रव्य और भाव की अपेक्षा परिमित व अपरिमित कालरूप प्रत्याख्यान का कथन हो वह प्रत्याख्यान नामक पूर्व है। अटुंगणिमित्तमहाखुई विज्ञाई पंचसत्तसया। दहलक्खं कोडिपयं विज्ञाणुवायं परूवंति ||47|| 11000000 अर्थ :- जो श्रुत ज्ञान एक करोड़ दस लाख पदों के द्वारा अंतरिक्ष, भौम, अंग आदि आठ निमित्त, पाँच सौ महाविद्यायों तथा सात सौ अल्पविद्यायों की प्ररूपणा करता है, उसे विद्यानुवाद प्रवाद कहते हैं। [23] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002703
Book TitleShruta Skandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2002
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, canon, & Agam
File Size3 MB
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