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________________ ब्रह्महेमचंद्रविरचित = नाना प्रकार के उपसर्गों को सहकर पाँच अनुत्तर विमानों में गये दस-दस मुनियों का जो वर्णन करता है, उसे अनुत्तरौपपादिक दशांग नामक अंग कहते हैं, उसे मैं नमस्कार करता हूँ। विशेषार्थ - उपपाद अर्थात जन्म ही जिनका प्रयोजन है वे औपपादिक कहलाते हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पाँच अनुत्तर हैं। अनुत्तर में उत्पन्न होने वाले अनुत्तरौपपादिक कहे जाते हैं। ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, नन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण और चिलातपुत्र ये दस वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में अनुत्तरौपपादिक हुए हैं। इसी प्रकार ऋषभादिक तेईस तीर्थंकरों के तीर्थ में भिन्न भिन्न दस अनुत्तरौपपादिक हुए हैं। इस प्रकार दस दस अनगार भयानक उपसर्गों को जीतकर विजयादिक अनुत्तरों में उत्पन्न हुए हैं। चूंकि इस प्रकार इसमें दस दस अनुत्तरौपपादिक अनगारों का वर्णन किया जाता है। अत: वह अनुत्तरौपपादिकदशांग कहलाता है। चउवग्गं तेणवदी सुणतंयं सपयपण्हवायरणं। णट्ठमुट्ठादिपण्हा जाणदि दसमो य अंगोवि ।।1।। 9316000 अर्थ :- जो अंग श्रुत तेरानवें लाख सोलह हजार पदों के द्वारा नष्ट, मुष्टि आदि प्रश्नों के पूछने पर उनके उपाय का वर्णन करता है। वह प्रश्न व्याकरण नामक दशवाँ अंग है। विशेषार्थ - जो प्रश्नों का व्याकरण अर्थात् उत्तर जिसमें हो वह = [10] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002703
Book TitleShruta Skandha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBramha Hemchandra, Vinod Jain, Anil Jain
PublisherGangwal Dharmik Trust Raipur
Publication Year2002
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, canon, & Agam
File Size3 MB
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