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________________ अधमाधम कम्बूल-चन्द्रमा, लग्नेश और कार्येश नीच या शत्रु के क्षेत्र में हों और इत्थशाल या मुत्थशिल योग करते हों तो अधमाधम कम्बूल योग होता है। इसके होने से महाकष्ट और विपत्ति होती है । लग्नेश और कार्येश के अधिकार परिवर्तन से कम्बूल योग के और भी कई भेद होते हैं । इन सब योगों का फल प्रायः अनिष्टकारक है। ९. गैरिकम्बूल-लग्नेश और कार्येश का इत्थशाल योग हो और शून्य मार्ग गत चन्द्रमा राशि के अन्तिम २९३ अंश में स्थित हो-आगे की राशि में जानेवाला हो और उससे अग्रिम राशि में स्वगृही या उच्च का लग्नेश, अथवा कार्येश स्थित हो जिससे चन्द्रमा मुत्थशिल योग करे तो गैरिकम्बूल योग होता है। इस योग के होने से अन्य की सहायता से कार्य सफल होता है । १०. खल्लासर-लग्नेश, कार्येश का इत्थशाल योग होता हो और चन्द्रमा शून्य मार्ग में स्थित हो तो खल्लासर योग होता है। इस योग के रहने से कम्बूल योग नष्ट हो जाता है। ११. रद्द-जो ग्रह अस्त, नीच, शत्रुगृही, वक्री, हीनक्रान्ति, बलहीन होकर इत्थशाल योग करता हो तथा यह कार्येश रूप में केन्द्र में स्थित हो अथवा वक्री होकर आपोक्लिम में से केन्द्र में जाता हो तो रद्द योग होता है । यह कार्यनाशक है । १२. दुष्फालिकुथ-मन्दगति ग्रह स्वोच्च, स्वगृह आदि के अधिकार में हो और अधिकार रहित शीघ्रगति से इत्थशाल योग करे तो दुष्फालिकुथ योग होता है । १३. दुत्थोत्थदिवीर-लग्नेश, कार्येश दोनों रद्दयोग में हों और दोनों में से एक किसी अन्य दूसरे स्वगृह आदि अधिकारवान् ग्रह से मुत्थशिल योग करे तो दुत्थोत्थदिवीर योग होता है। १४. तम्बीर-लग्नेश से कार्येश का इत्थशाल योग न हो और इनमें से कोई एक बलवान मार्गी ग्रह राशि के अन्तिम अंश में हो और इसके दीप्तांशवर्ती अग्रिम राशि में कोई स्वगृही या उच्च राशि में स्थित हो तो तम्बीर नाम का योग होता है। १५. कुत्थयोग-लग्न में स्थित ग्रह बलवान् होता है, इनमें से २।३।४।५।७। ९।१०।११वें स्थान में स्थित ग्रह उत्तरोत्तर होनबल होते हैं। इसी प्रकार स्वक्षेत्र, स्वोच्च, स्वहद्दा, स्वद्रेष्काण, स्वनवमांश में स्थित, हर्षित आदि अधिकारसम्पन्न ग्रह उत्तरोत्तर बली होते हैं । इन ग्रहों के सम्बन्ध को कुत्थयोग कहते हैं। १६. दुरफ्फ-३।८।१२वें भाव में स्थित ग्रह; वक्री होनेवाला, वक्री, शत्रुगृही, नीच, पापग्रह से युत, कान्तिहीन, अस्त, बलहीन ग्रह; इसी प्रकार के अन्य निर्बल ग्रह से मुत्थशिल योग करता हो तो दुरफ्फ योग होता है। इस योग का फल अनिष्टकारक होता है। १. जो ग्रह स्वक्षेत्र, स्वोच्च आदि शुभ या अशुभ कोई भी अधिकार में न हो और न किसी ग्रह की दृष्टि हो तो वह शून्य मार्गगत कहलाता है। भारतीय ज्योतिष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002676
Book TitleBharatiya Jyotish
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Jyotish
File Size22 MB
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