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आश्विन कृष्णा प्रतिपदा की सन्ध्या थी, नगर के सभी जिनालय विद्युत् प्रकाश से आलोकित थे । धूप-घटों से निकलनेवाले सुगन्धित धूम्र ने दिग् - दिगन्त को सुवासित कर दिया था | अगरबत्तियों की सुगन्ध ने न जाने कितनी मर्मकथाओं से मेरा मन भर दिया, जिससे प्राण-प्राण की अन्तः पीड़ा मुखरित हो उठी है ।
अपनी बात
[ प्रथम संस्करण ]
अपार जन समुदाय उमड़ता हुआ जिनालयों की सुषमा, मोहक सजावट और दिव्यालोक के दर्शन की लालसा से चला जा रहा था । आज पर्यूषण की समाप्ति के पश्चात् जैन-धर्मानुयायियों ने अपने भीतर के समान बाहर को भी आलोकित किया था । दीपावली से भी मनोरम दृश्य विद्यमान था । जैन मन्दिरों में फेनोज्ज्वल सौन्दर्य का प्रवाह देश और काल की सीमा से ऊपर था । इसलिए सैकड़ों की नहीं, सहस्रों की टोलियाँ आती और जाती थीं । रंग-बिरंगे झाड़-फानूसों के बीच सन्ध्या के आकुल वक्ष पर यौवन का स्वर्णकलश भरा रखा था। झालर - तोरणों से सजे जिनालय दर्शकों के मन को उलझा लेने में पूर्ण सक्षम थे । सन्ध्यानिल के मादक झोंके मन्थर गति से प्रवाहित हो अपार भीड़ को सौन्दर्य की उस प्रभा से सम्बद्ध कर आत्म-विभोर बना रहे थे ।
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खते उत्सव का एक पारावार उमड़ आया। चित्र-विचित्र वस्त्राभूषणों में सहस्रों Tमीण नर-नारियों की अपार वसुन्धरा चारों ओर व्याप्त हो गयी । मैं सरस्वती भवन के बाहरी बरामदे में बैठा हुआ इस अपार भीड़ को अपने में खोया हुआ देख रहा था । आँखें विद्युत्प्रकाश की ओर थीं और मन न मालूम कहाँ विचरण कर रहा था । आज ही मध्याह्न में एक निबन्ध पढ़ा था, जिसमें लेखक ने बतलाया था कि"लाइब्रेरियन संसार के ज्ञानियों में एक विलक्षण ज्ञानी होता है । यद्यपि विश्व में उसका सम्मान नहीं होता, पर विद्वत्ता में वह किसी से भी घट नहीं बन अभागा है, जो पढ़ता और लिखता नहीं ।" न मालूम मेरा मन था, और अभी तक इसी निबन्ध में उलझा हुआ था । लाइब्रेरियन हुए मुझे अभी दो ही वर्ष हुए थे, अतः अनेक महत्त्वाकांक्षाओं के मसृण स्पर्श ने मेरे मन को गुदगुदाया और मेरी हृदय-बीन के तार झनझना उठे । विचार-विभोर होने से नेत्र बन्द हो गये और
। वह लाइब्रेरि
आज क्यों उदास
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