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ज्या, कुज्या, तद्धृति, समशंकु इत्यादि का आनयन रहता है । प्राचीन काल में इसकी परिभाषा केवल सिद्धान्त गणित के रूप में मानी जाती थी | आदिकाल में अंकगणित द्वारा ही अहर्गण - मान साधकर ग्रहों का आनयन करना इस शास्त्र का प्रधान प्रतिपाद्य विषय था । पूर्वमध्यकाल में इसकी यह परिभाषा ज्यों की त्यों अवस्थित रही । उत्तरमध्यकाल में इसने अनेक पहलुओं के पल्लों को पकड़ा और इस युग के प्रारम्भ से वासनात्मक होती हुई भी व्यक्तगणित को अपनाती रही, इसीलिए इस काल में गणित के सिद्धान्त, तन्त्र और करण ये तीन भेद प्रकट हुए।
जिसमें सृष्ट्यादि से इष्ट दिन पर्यन्त अहर्गण बनाकर ग्रह सिद्ध किये जायें वह 'सिद्धान्त' ; जिसमें युगादि से इष्ट दिन पर्यन्त अहर्गण बनाकर ग्रहगणित किया जाये वह 'तन्त्र' और जिसमें कल्पित इष्ट वर्ष का युग मानकर उस युग के भीतर ही किसी अभीष्ट दिन का अहर्गण लाकर ग्रहानयन किया जाये उसे 'करण' कहते हैं । उत्तर- मध्यकाल के अन्त में गणित ज्योतिष की परिभाषा विस्तृत होने की अपेक्षा संकुचित दिखलाई पड़ती है; क्योंकि इस युग में क्रियात्मक ग्रहगणित को छोड़ वासनात्मक ( उपपत्तिविषयक ) ग्रहगणित का ही आश्रय ज्योतिषियों ने ले लिया, जिससे वास्तविक ग्रहगणित का विकास कुछ रुक-सा गया । यद्यपि करण-ग्रन्थों की सारणियां तैयार की गयी थीं, किन्तु आगे आकाश-निरीक्षण और व्यक्तक्रियात्मक ग्रहगणित के अभाव में सारणियों में संशोधन न हो सके । इस प्रकार गणित ज्योतिष की परिभाषा कभी शैशव और कभी यौवन के साथ अठखेलियाँ करती रही ।
संहिता
इसमें भूशोधन, दिक्शोधन, शल्योद्धार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, इष्टकाद्वार, हारम्भ, गृहप्रवेश, जलाशय निर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, उल्कापात, वृष्टि, ग्रहों के उदयास्त का फल, ग्रहचार का फल एवं ग्रहण - फल आदि बातों का निरूपण विस्तारपूर्वक किया जाता है । मध्य युग में संहिता की परिभाषा होरा, गणित और शकुन के मिश्रित रूप में मानी गयी है । ९वीं और १०वीं शताब्दी में क्रियाकाण्ड भी इसकी परिभाषा के अन्तर्गत आ गया है। संहिताशास्त्र का जन्म आदिकाल में हुआ और इसकी परिभाषा का क्षेत्र उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया। कुछ जैनाचार्यों ने जीवनोपयोगी आयुर्वेद की चर्चाएँ भी संहिता के अन्तर्गत रखी हैं । १२वीं और १३वीं शताब्दी में इस शास्त्र की परिभाषा इतनी विकसित हुई है कि जीवन से सम्बद्ध सभी उपयोगी लौकिक विषय इसके अन्तर्गत आ गये हैं ।
प्रश्नशास्त्र
यह तत्काल फल बतलानेवाला शास्त्र हैं । इसमें प्रश्नकर्ता के उच्चारित अक्षरों पर से फल का प्रतिपादन किया जाता है। ईसवी सन् की ५वीं और ६ठी
भारतीय ज्योतिष
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