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आकाश की ओर दृष्टि डालते ही मानव मस्तिष्क में कि ये ग्रह-नक्षत्र क्या वस्तु हैं ? तारे क्यों टूटकर गिरते हैं ? ये कुछ दिनों में क्यों विलीन हो जाते हैं ? सूर्य प्रतिदिन पूर्व होता है ? ऋतुएँ क्रमानुसार क्यों आती हैं ? आदि ।
प्रथमाध्याय
मानव स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह जानना चाहता है—क्यों ? कैसे ? क्या हो रहा है ? और क्या होगा ? यह केवल प्रत्यक्ष बातों को ही जानकर सन्तुष्ट नहीं होता, बल्कि जिन बातों से प्रत्यक्ष लाभ होने की सम्भावना नहीं है, उनको जानने के लिए भी उत्सुक रहता है । जिस बात के जानने की मानव को उत्कट इच्छा रहती है, उसके अवगत हो जाने पर उसे जो आनन्द मिलता है, जो तृप्ति होती है उससे वह निहाल हो जाता है ।
मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण करने पर ज्ञात होगा कि मानव की उपर्युक्त जिज्ञासा ने ही उसे ज्योतिषशास्त्र के गम्भीर रहस्योद्घाटन के लिए प्रवृत्त किया है । आदिम मानव ने आकाश की प्रयोगशाला में सामने आनेवाले ग्रह, नक्षत्र और तारों प्रभृति का अपने कुशल चक्षुओं द्वारा पर्यवेक्षण करना प्रारम्भ किया और अनेक रहस्यों का पता लगाया । परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि तब से अब तक विश्व की रहस्यमयी प्रवृत्ति के उद्घाटन करने का प्रयत्न करने पर भी यह और उलझता
जा रहा है ।
व्युत्पत्त्यर्थं
प्रथमाध्याय
उत्कण्ठा उत्पन्न होती है पुच्छल तारे क्या हैं और दिशा में ही क्यों उदित
ज्योतिषशास्त्र की व्युत्पत्ति 'ज्योतिषां सूर्यादिग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्' की गयी है; अर्थात् सूर्यादि ग्रह और काल का बोध करानेवाले शास्त्र को ज्योतिषशास्त्र कहा जाता है । इसमें प्रधानतः ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु आदि ज्योतिः पदार्थों का स्वरूप, संचार, परिभ्रमणकाल, ग्रहण और स्थिति प्रभृति समस्त घटनाओं का निरूपण एवं ग्रह, नक्षत्रों की गति, स्थिति और संचारानुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है । कुछ मनीषियों का अभिमत है कि नभोमण्डल में स्थित ज्योतिःसम्बन्धी विविधविषयक विद्या को ज्योतिर्विद्या कहते हैं; जिस शास्त्र में इस विद्या का सांगोपांग वर्णन रहता है, वह ज्योतिषशास्त्र है । इस लक्षण और पहलेवाले ज्योतिषशास्त्र के व्युत्पत्त्यर्थ में केवल
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