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अयनांश निकालने की विधि
अयनांश निकालने की कई विधियाँ प्रचलित हैं। वर्तमान में साधारणतया ज्योतिविद् ग्रहलाघव, मकरन्द और सूर्यसिद्धान्त इन तीन ग्रन्थों के आधार पर से निकालते हैं। किन्तु मुझे ग्रहलाघव द्वारा निकाला गया अयनांश ठीक जंचता है। वेध क्रिया द्वारा भी लगभग इतना ही अयनांश आता है। ग्रहलाघव की विधि निम्न प्रकार है--
'इष्ट शक वर्ष, जो पंचांग में लिखा रहता है, उसमें से ४४४ घटाकर शेष में ६० का भाग देने से अयनांश होता है।
उदाहरण-शक सं. १८६६-४४४%3D१४२२:६०-२३।४२
मकरन्द-विधि-इष्ट शक वर्ष में से ४२१ घटाकर शेष को दो स्थानों में रखे, एक स्थान में १० से भाग देकर लब्धि को द्वितीय स्थान में से घटावे । जो शेष आवे उसमें ६० का भाग देने से अयनांश आता है।
उदाहरण- शक सं. १८६६-४२१ =१४४५, १४४५ : १०=१४४।३० १४४५। ० में से १४४।३० को घटाया ५३००। ३० शेष रहा,
१३००।३०६६ =२११४० अयनांश हुआ। लग्नशुद्धि का विचार
__ जन्मकुण्डली का सारा फल लग्न के ऊपर आश्रित है, यदि लग्न ठीक न बना हो तो उस कुण्डली का फल सत्य नहीं हो सकता है। यद्यपि शहरों में घड़ियाँ रहती हैं, परन्तु उन घड़ियों के समय का कुछ ठीक नहीं; कोई घड़ी तेज़ रहती है तो कोई सुस्त । इसके अतिरिक्त जब लग्न एक राशि के अन्त और दूसरी राशि के आदि में आता है, उस समय उसमें सन्देह हो जाता है। प्राचीन आचार्यों ने लग्न के शुद्धाशुद्ध विचार के लिए निम्न नियम बतलाये हैं, इन नियमों के अनुसार लग्न की जांच कर लेना अत्यावश्यक है।
१-प्राणपद एवं गुलिक के साधन द्वारा इष्टकाल के शुद्धाशुद्ध का निर्णय कर गणितागत लग्न के साथ तुलना करना चाहिए।
२–इष्टकाल, सूर्य स्थित नक्षत्र, जन्मकालीन चन्द्रमा, मान्दि एवं स्त्री-पुरुष-जन्म योग द्वारा लग्न का विचार करना चाहिए।
३-प्रसूतिका गृह, प्रसूतिका वस्त्र एवं उपप्रसूतिका संख्या आदि उत्पत्तिकालीन वातावरण के निर्णय द्वारा लग्न का निर्णय करना चाहिए।
४-जातक के शारीरिक चिह्न, गठन, रूप-रंग इत्यादि शरीर की बनावट द्वारा लग्न का निर्णय करना । जिन्हें ज्योतिष शास्त्र की लग्नप्रणाली का अनुभव होता है, वे जातक के शरीर के दर्शन मात्र से लग्न का निर्णय कर लेते हैं। १. शके वेदाब्धिवेदोनः ४४४ षष्टिर्भक्तोऽयनांशकाः ॥
अथवा वेदाब्ध्यग्ध्यूनः खरसहृतः शकोऽयनांशाः।-ग्रहलाघव रविचन्द्र. श्लो. ७। द्वितीयाध्याय
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