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भुवणभाणुकेवलिचरियं
सवसीभूअऽप्पाणं जणेइ हासं च जो मुणी बहुअं । 'तत्तविऊण जणाण वि अच्छेरं कुणइ किं एअं? ॥१४०१।। अपरावदृतस्स य अचिंतमाणस्स विसमनिहस्स। सच्छिद्दहत्थसलिलं व सुअं विगलेइ जस्स सया ॥१४०२॥ सुहुमगहणत्थरासी 'विस्सरणं गच्छए समग्गो वि । जस्स जह सुअं भंसइ तहा हवइ जो निराकंखो ॥१४०३॥ निद्दासुहं "विसाओ वि अब्भहिअमसुहकारणं एअं । *अमिअं पिव मन्नंतो रयणीए जो जहा सुवइ ॥१४०४॥ चिटुइ दिणम्मि वि तहा सुत्तो सुत्तं असेसयं गलिअं । गुरुणा भणिज्जए वच्छ ! पुंडरीआभिहाणमुणे! ॥१४०५।। सिद्धतं पढिउं पुण उच्छाहेणं तहाविहेण वयं । गहिअं तुमए दुहओ पाढो एसो उ संजाओ ॥१४०६।। नरलोअरजसुरलोअसुक्खमुक्खेगदाणसुररुक्खो । जिणभासि तु सत्थं गुणिअव्वं इममणत्थहरं ॥१४०७।। नारय-तिरिआइअदुहसंदोहपयाणकारणम्मि तुमं । निद्दासुहम्मि रत्तो निरत्थयं वट्टसि मुणे ! किं ? ॥१४०८।।
निद्धंधसो अ समणो भासइ भयवं! करेइ को निहं ? । केणावि इमं वितहं तुम्हाणं अग्गओ कहिअं ॥१४०९।। जम्हा कल्ले वि मए एअपमाणं सुअं इमं गुणिों । चिंतेइ तओ सुगुरू अहो! परं एअमब्भहि ॥१४१०।। जं अवलवेइ पञ्चक्खमवि मुणी सञ्चयं च नो चवइ । अन्नय जो निदाए समणो विसधारिउ व्व कओ ॥१४११।। सहेण महंतेण वि सहमदितो "दिवासुविणदंसी। विविहविगारगयमुहो सुत्तो दिट्ठो रिसी गुरुणा ॥१४१२॥ काऊणं बहुसद्दे गुरुणा जग्गाविऊण भणिओ जो । एवं बोल्लसि भो पुंडरीअ ! न सुवसि (सुवेमि) ताव अहं ॥१४१३।। तं किं एअं स चवइ कुत्थ किमेअं गुरो ! अहं सुविओ?। इअ तुम्हाणं 'भंती अज वि गुणणापरो उ अहं ॥१४१४॥
१. तत्त्वविदाम् ॥ श्रुतम-शास्त्रम् ॥ ३. विस्मरणम् ॥ ४. विषात् ॥ ५. अमृतम् ॥ ६. निर्लज्जः ॥ ७. विषधारितः॥ ८. दिवास्वप्नदर्शी ॥ ९. भ्रान्तिः ॥
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