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________________ १२३ पञ्चसुन्दरसूरिविरचित आगतिं गतिमुत्पत्तिच्यवने जन्मिनां जगौ । शलाका पुरुषान् सर्वान् कर्मणां वर्गवर्गणाः ॥१५६॥ स्पर्द्धकादिव्यवस्थां च कृतं यत् प्रतिसेवितम् ।। आविः कर्म रहः कर्म भुक्ति मुक्तिमुपादिशत् ॥१५७।। श्रुत्वेति भगवव्याख्यां घनस्तनितजित्वरीम् । भव्या निष्पीतपीयूषा इव प्रमुदमाययुः ॥१५८॥ जगृहुः केऽपि सम्यक्त्वं केचित् पञ्चमहाब्रतान् । गृहिधर्म परे सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वकम् ॥१५९।। श्रीमत्पार्श्वघनाघनाद्विलसितं मन्द्रं ध्वनेगर्जितं ते सामाजिकचातकाः श्रुतिगतं सम्पाद्य सोत्कण्ठिताः । पीत्वा धर्मरसामृतं मृतिजराशून्यं पदं लेभिरे भूयान्मङ्गलसङ्गमाय भविनां सैवाऽऽहती भारती ॥१६॥ इति श्रीमत्परापरपरमेष्ठिपदारविन्दमकरन्दसुन्दररसास्वादसम्प्रीणितभव्यभव्ये पं० पद्ममेरुविनेयपं०श्रीपद्मसुन्दरविरचिते श्रीपार्श्वनाथमहाकाव्ये __ श्रीपार्श्वसमवसृतिधर्मदेशनोपश्लोकनं नाम षष्ठः सर्गः । (१५६-१५७) संसारी जीवों की आगति, गति, उत्पत्ति, च्यवन की बात भी उन्होंने कहीं। उन्होंने सभी शलाकापुरुषों का चरित्र वर्णित किया, कर्मो की वर्गणाओं का निरूपण किया, कर्मों की स्पर्धक आदि के द्वारा व्यवस्था की । उन्होंने प्रतिसेवना, प्रकट या उदित कर्म, अप्रकट या अनुदित कर्म, कर्मफलभोग और कर्म से मुक्ति - इन सब बातो का उपदेश दिया । (१५८) प्रभु पार्श्व का घनगर्जना से अधिक गंभीर उपदेश सुन कर भव्य जीव अत्यन्त आनन्दित हुए मानों उन्होंने सुधा का आकंठ पान किया हो । (१५९) कुछ सीबों ने सभ्यक्त्व धारण किया, कुछ ने पांच महाव्रतों को स्वीकार किया, अन्य ने सम्यग शान-दर्शनपूर्वक श्रावक धर्म को अपनाया । (१६०) श्रीपार्श्वनाथरूपी धने बादलों से जनित गम्भीर ध्वनि की गर्जना को सुन कर वे श्रोतारूपी चातक (धर्मरसामृत पीने के लिए) उस्कण्ठित हो गये । फिर धर्मरसामृत का पान करके वे जरामरणरहित पद को प्राप्त हुए । अहं तदेव की वाणी भव्य जीवों के मंगल की प्राप्ति के लिए हो! इति श्रीमान् परमपरमेष्ठि के चरणकमल के मकरन्द के सुन्दर रस के स्वाद से भव्यजनों को प्रसन्न करने वाला, पं० श्री पद्ममेरु के शिष्य पं. श्रीपद्मसुन्दर कवि द्वारा रचित श्रीपार्श्वनाथ महाकाव्य गों 'श्रीपावसमवसुति और धर्मदेशना का विवेचन' नामक षष्ठ सर्ग समाप्त हुआ। - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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