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श्री पार्श्वनाथचरितमहाकाव्य
भो भव्याः श्रयतामेष तत्त्वनिर्णयविस्तरः । यो भवाब्धिपतज्जन्तुजातहस्तावलम्बनम् ||८६|| जीवाजीवौ द्विधा तत्त्वं जीवो द्वेधा विनिश्चितः । मुक्तो भवस्थो विज्ञेयो भवस्थस्तु द्विधा भवेत् ॥ ८७ ॥ भव्यश्चाभव्य इत्येवं जीवश्चैतन्यलक्षणः । अनादिनिधनो ज्ञाता द्रष्टा तनुमितिर्गुणी ॥८८॥
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कर्ता भोक्ता विशुद्धोऽयं लोकालोकप्रकाशकः । मुक्तः स्यादूर्ध्वगमनस्वभावोऽयं सनातनः ।। ८९ ।। पूर्वप्रयोगतोऽसङ्गत्वाद् वा बन्धविभेदनात् । गतेश्च परिणामात् स्यादूर्ध्वगामित्वमात्मनः ॥९०॥ उपसंहारविस्तारपरिणामः प्रदीपवत् । तस्येमे मार्गणोपाया मृग्याः संसारिणस्सदा ॥९१॥ गतिरिन्द्रियकायौ च योगा वेदाः कषायकाः । ज्ञानसंयमहग्लेश्या भव्यसम्यक्त्वसंज्ञिनः ॥९२ ॥
आहारकश्चैषु मृग्यो मार्गणास्थानकेष्वसौ । स नामस्थापनाद्रव्यभावतो न्यस्यते बुधैः ॥९३॥
(८६) हे भव्यजीवों !, यह तत्त्वनिर्णय का विस्तार सुनो, जो भवसागर में पड़े हुए जन्तुओं (प्राणिओं) के लिए हाथ में आया आलम्बन है । (८७-८९) तत्त्व दो हैं- जीव एवं अजीव । जीव दो प्रकार का निश्चित है— मुक्त व भवस्थ ( संसारी) । संसारी जीव पुनः दो प्रकार का है- भव्य और अभव्य | जीव का लक्षण चैतन्य है । जीव अनादिनिधन, ज्ञाता, द्रष्टा, शरीरपरिमाण, गुणी, कर्ता, व भोक्ता है । जो जीव विशुद्ध है ( वीतराग है) वह लोक और अलोक दोनों को जानता है । जीव का सनातन स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने का है । ( अतः मुक्त होते ही जीव ऊर्ध्वगमन करता है) । (९०) उसकी ऊर्ध्वगति में पूर्व प्रयोग, असङ्क्रगता, बन्धच्छेद और गतिपरिणाम कारण हैं । (९१-९३) जीव प्रदीप की तरह संकोच - विकासशील है । संसारी जीब का विचार गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यकूत्व, संज्ञित्व, आहारकत्व आदि दृष्टियों से ( मार्गणास्थानों से ) किया जाना चाहिए । जीव का विचार नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चार निक्षेपों से भी विद्वानों द्वारा किया जाता है ।
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