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पद्मसुन्दरमूरिविरचित
तदनुगगनभागादाशु सन्तानकादि
द्रुमसुरभिसुमानां वृष्टिरुच्चैः पपात । कृतजयनिनदास्तेऽवातरन् देवसङ्घा
अहमहमिकया तं भक्तिभारात् प्रणेमुः ॥७२।। व्यरमयदथ तापं स्वनंदीवाहगाहा
दतिशिशिरतरोऽसौ मातरिश्वा विसारी । विकचकमलखण्ड कम्पयंल्लीनभृङ्गं
पथि सुरमिथुनानामेष्यतां मन्दमावात् ॥७३।। व्यरजयदथ कृत्स्नं भूमिभागं समन्तात्
सुरकृतजलवृष्टिर्या पतन्ती नभस्तः । अवृजिनजिनधर्माऽऽस्थानविन्यासहेतुं
नवजललवसेकध्वस्तविश्वकतापा ॥७४।। विविधमणिगणैस्ते बद्ध भूमौ सुरौघा
रजतकनकरत्नस्त्रीन् सुशालान् विशालान् । विदधुरथ चतुर्भिर्गापुरैः शोभमानान्
उपवनतरुराजीवापिकाम्भोजरम्यान् ॥७५।। तेषां मध्यगतं हेममाणिक्यरचितं ज्वलत् ।। सिंहासनं तदासीनः श्रीपाश्वों भगवान् बभौ ॥७६।।
(७२) उसके पश्चात् आकाश से संतानक आदि वृक्षों के सुगन्धित पुष्यों की बहुत सी वर्षा हुई । जयजयकार करते हुए देवसमुदाय उतरने लगे । 'मैं पहला, मैं पहला' कहकर भक्तिनम्र होकर वे पार्श्वप्रभु को नमस्कार करने लगे । (७३) गंगानदी में स्नान करने से अतीव शीतल, चारों और फैलने वाले वायु ने सन्ताप को दूर कर दिया। लीन भ्रमरों वाले विकसित कमलों को कम्पित करता हुआ वायु मार्ग में जानेवाले सुरमिथुनों के लिए धीरे धीरे बहने लगा । (७४) निष्पाप जिनधर्म ठीक से अपना आसन जमा सके इसलिए नवीन जलबिन्दुओं के सिंचन से विश्व के ताप को नष्ट करने में अद्वितीय, देवों के द्वारा की गई, आकाश से गिरती जलवृष्टि ने चारों ओरसे समस्त पृथ्वी को धूलिरहित कर दिया । (७५) उन देवताओं ने उस बद्धभूमि पर विविध मणिओं से तथा रजत स्वर्ण और रत्नों से विशाल कोट बनाये जो चार गोपुर द्वारों से शोभित थे तथा उपवन, वनराजी, बाबड़ी तथा कमलों से सुन्दर लगते थे। (७६) उनके मध्य में स्वर्ण तथा मणि रचित देदीप्यमान सिंहासन था, उस पर बैठे हुए श्रीपार्श्वभगवान् शोभित थे।
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