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पद्मसुन्दरसरिविरचित श्रुत्वेति भीतभीतोऽसौ शरण्यशरणं श्रितः । नत्वा श्रीपार्श्वमाह स्म क्षमस्व मम विप्रियम् ॥५७।। प्रभोः शिरस्यहिश्छत्रं शिवापुर्या' दधौ अहम् । अहिच्छत्रेति लोके सा तदारभ्य निगद्यते ॥५८॥ सुरा निजाश्रयं जग्मुः भगवानप्रमत्तताम् । प्राप्तस्त्र्यशीत्या दिवसैरतिक्रान्तैर्महामनाः ॥५९।। भगवानप्रमत्तस्तु प्राप्यानन्तगुणां तदा । विशुद्धिमुद्धरां बिभ्रत् क्षपकश्रेणिमासदत् ।।६०॥
आद्यं शुक्लांशमध्यास्य बिभ्राणो ध्यानशुद्धिताम् । मोहस्य प्रकृतीः सर्वाः क्षपयामास स क्रमात् ॥६१॥ करणत्रयमासाद्य शुद्धयोऽस्य पृथग्विधाः । यथाप्रवृत्तिकरणे शुद्धयः स्युः प्रतिक्षणम् ॥६२।। पुरः पुरो वर्द्धमानाः सर्वा आचरमक्षणम् । अपूर्वकरणे तास्तु स्युरपूर्वा प्रतिक्षणम् ॥६३।। करणे त्वनिवृत्ताहवे शुद्धयः स्युः समा मिथः । निष्पन्नयोगी याः प्राप्य स्वानन्दान्न निवर्तते ॥६४॥
(५७) यह सुनकर भयभीत हुआ मेघमाली शरण्य की शरण में आया । श्रीपाश्व को प्रणाम कर कहने लगा -'मेरा यह दुष्कृत क्षमा करिये। (५८) स्वामी के सिर पर शिवापुरी में मैं ने अहिछत्र (फणा) धारण किया अतः वह नगरी उस दिन से अहिछत्रा के नाम से कही जाने लगी । (५९) देव अपने स्थान को गये और उदार मनवाले भगवान् तैरासी (८३) दिन बीत जाने पर अप्रमत्तता को प्राप्त हुए । (६०) अप्रमत्त भगवान् पार्श्व अनन्तगु णशालिनी उत्कृष्ट विशुद्धि को धारण करते हुए क्षपकश्रेणि को प्राप्त हुए। (६१-६२६३) प्रथम शुक्लध्यान का आश्रय करके ध्यानशुद्धि कोधारण करते हुए पार्श ने मोह की सभी प्रकृतियों को करणत्रय (यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्व करण और अनिवृत्तिकरण) के द्वारा क्रमशः नष्ट कर दिया। करणत्रय से सम्पन्न उनकी शुद्धियाँ भिन्न भिन्न प्रकार की थी। यथाप्रवृत्तिकरण में प्रतिक्षण शुद्धियाँ होती रहती हैं और आगे आगे अन्तिम क्षण तक वे सब बढ़ती रहती हैं। अपूर्णकरण में वे शुद्धिया प्रतिक्षण अपूर्ण होती हैं । (६४) अनिवृत्तिकरण नाम के करण में शुदिधयाँ आपस में समान मात्रा में होती है, जिनको प्राप्त कर निष्पन्नयोगी निजानन्द से च्युत नहीं होते ।
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