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________________ श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य उचितप्रमिताभीक्ष्ण्यसधर्मावग्रहग्रहः । अनुज्ञातान्नपानाशी तृतीयव्रतभावनाः ॥३४॥ स्त्रीणामालोकसंसर्गान् कथाप्राग्रतसंस्मृतीः । वर्जयेद् वृष्यमाहारं चतुर्थवतभावनाः ॥३५॥ बाह्यान्तर्गतसङ्गेषु चिदचिन्मिश्रवस्तुषु । इन्द्रियार्थेष्वनासक्तिः पञ्चमव्रतभावनाः ॥३६॥ धैर्यवत्त्वं क्षमावत्त्वं ध्यानस्यानन्यवृत्तिता । परीषहजयश्चैता व्रतेषूत्तरभावनाः ॥३७॥ अष्टमातृपदाव्यानि सहितान्युत्तरैर्गुणैः । निःशल्यानि व्रतान्येवं भावयन् शुभभावनः ॥३८॥ ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्यात्मकं च यत् । पञ्चधा चरणं साक्षाद् भगवानाचरत्तराम् ॥३९॥ धर्म दशतयं सानुप्रेक्षं समितिगुप्तिभिः । युक्तं परीषहजयैः सम्यक् चारित्रमाचरत् ॥४०॥ (३४) उचितस्थानग्रहण, प्रमितस्थानग्रहण, बार बार (अनुज्ञा लेकर) स्थानग्रहण, सापर्मिक के पास से स्थान का ग्रहण और अनुज्ञात अन्न-पान का आहार, ये (पाँच) तृतीयव्रत (भचौर्य) की भावनाएँ हैं। (३५) स्त्रीदर्शन का वर्जन, स्त्रीसंसर्ग का त्याग, स्त्रीकथा का वर्जन, पूर्वानुभूत रतिविलास के स्मरण का त्याग और कामवर्धक आहार का वर्जन ये (पाँच) चतुर्थव्रत (ब्रह्मचर्य) की भावनाएँ हैं। (३६) बाह्येन्द्रिय और अन्तरिन्द्रिय का आकर्षण करने वाले, इन्द्रियग्राह्य सचित्त (सजीव) अचित्त (निर्जीव) और सचित्ताचित्त विषयों में (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द में) अनासक्ति ये (पांच) पंचम व्रत (अपरिग्रह) की भावनाएँ हैं। (३७) धैर्यवत्ता, क्षमाशीलता, ध्यान की अनन्यवृत्तिता, और परिषह की विजय - ये (चार) व्रतों की उत्तर भावनाएँ हैं। (३८) अष्टप्रवचनमाता से (तीन गुप्ति और पांच समितियों से) आढ्य, उत्तर गुणों से युक्त और शल्यों से (दंभ, भोगलालसा, असत्यासक्ति से) रहित (पांच मूल) व्रतों की (अहिंसा आदि की) भावना शुभभावनावाले वे करते थे। (३९) ज्ञानात्मक, दर्शनात्मक, चारित्रात्मक, तपस्यात्मक, और वीर्यात्मक जो पांच प्रकार के आचार हैं; उनका साक्षात् आचरण भगवान् करते थे। (४०) (अनित्यानुचिंतन, अशरणानुचिंतन, संसारानुचिंतन, एकत्वानुचिंतन, अन्यत्वानुचिंतन, अशुच्यनुचिंतन, आस्रवानुचिंतन, संवरानुचिंतन, निर्जरानुचिंतन, लोकानुचिंतन, बोधिदुर्लभत्वानुचिंतन और धर्मस्वाख्यातत्वानुचिंतन, ये बारह) अनुप्रेक्षा से, (पांच) समितिसे और (तीन) गुप्ति से युक्त दशप्रकार के धर्म का (क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य का) वे आचरण करते थे, तथा परीषहजय से युक्त सम्यक् चारित्र का वे भाचरण करते थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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