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षष्ठः सर्गः अथाष्टमतपःप्रान्ते श्रीपाश्वों भगवान् स्वयम् । विष्याणान्वेषणे बुद्धिं चक्रे कायस्थितीन्छुकः ॥१॥ यतिमार्गप्रदर्शित्वं स्वतनुस्थितिकारिता । सुखेन मुक्तियानं स्यादित्यर्थे मुनिभोजनम् ॥२॥ न कृशीकुरुते कायं मुनिनॊपचिनोति वा । किन्तु संयमवृध्द्यर्थ प्रयतेत ननु स्थितौ ॥३॥ कर्मणां निर्जरायोपवासादेरुपक्रमः । . तनुस्थित्यर्थमाहारो यतीना सूत्रसूचितः ॥४॥ रसासक्तिमतन्वानो यात्रायै संयमस्य तु । गृहणन्निर्दोषमाहारं मुनिः स्यान्निर्जरालयः ॥५॥ इति निश्चित्य भगवान् पार्श्वः संयमवद्धने । कृतोयोगश्चचालायं पुरं पकटं प्रति ॥६॥ युगमात्रस्फुरदृष्टिर्यामार्ग विशोधयन् । स प्रतस्थेऽखिला पृथ्वी पादन्यासैः पवित्रयन् ॥७॥ क्रमेण विहरन् मध्येनगरं स समासदत् ।
सदा सोत्कण्ठितो लोकः श्रोपावस्य दिदृक्षया ॥८॥ १ इसके पश्चात् अष्टमतप के अन्त में कायस्थिति के इच्छुक भगवान् पार्श्व ने स्वयं भोजन हँदने का विचार किया । (२) 'विवेकपूर्ण भोजन लेना जिसका एक अंग है ऐसे यतिमार्ग को दिखलाने के लिए, अपने शरीर को टिकाये रखने के लिए और सुखपूर्वक ( अर्थात् बिना दुान ) मुक्तिमार्ग में गति हो सके इसलिए मुनि को भोजन लेना होता है। (३):मुनि न तो शरीर को कृश करे न हो पुष्ट करे, किन्तु संयम को बढाने के अपने शरीर को टिकाये रखने का प्रयत्न करे । (४) कर्मों की निर्जरा के लिए उपवास आदि का प्रारंभ होता है। शरीर की स्थिति के लिए मुनियों के आहार का सत्रों में सचन किया गया है। (५) रस में लोलुपता नहीं करने वाला, केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए दोषरहित भोजन करने वाला मुनि कम निर्जरा का स्थान है ।' (६) ऐसा निश्चय करके भगवान पार्श्व ने अपने संयम को वृद्धि में प्रयत्न करते हुए कपकट नामक नगर के प्रति प्रस्थान किया । (७) चार हाथ मात्र तक फैलती दृष्टि से ( बहुत सूक्ष्मता के साथ) चलने के रास्ते को (कीट पतंग आदि की हिंसा न हो इसलिए ) बराबर देखकर उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने चरणन्यास से पवित्र करते हुए प्रस्थान किया । (८-९) क्रम से विचरते हए नगर के मध्य वे पहुंचे तब वहाँ के लोग उस्कण्ठित होकर श्रीपार्श्व को
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