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________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित मासोपचासकरणादिभिरेव घोरं युग्मादृशां न च कुमार ! तदस्ति गम्यम् । श्रुत्वा पुनः स तमुवाच विदांवरेण्यः ____ कार्या मया न नितरामवमानना ते ॥५॥ मीमांस्यते खलु यथातथमेव तत्त्वं भाव्यं दुधस्तु नयवर्मविचारवः । नैवान्तरेण जिनदर्शनमन्यतोऽपि पश्यामि धर्मनिकषस्य तथोपपत्तिम् ॥५॥ मिथ्यात्वमव्रतकषायचतुष्कयोगै वारिवहन्यनिलभूरुहजङ्गमेषु । योगैमीवचनकायकतैस्त्रिधापि यत् तापसा अपि चरीकति सेषु हिंसाम् ॥५८॥ तत् सर्व कृत्यमिह वाध्यमुशन्ति तज्ज्ञा विज्ञानशून्यहृदयस्य तपस्यतोऽपि । युग्मादृशस्य जलमन्थनतो घरेछो ___ यद्वा तुषावहननादपि तण्डुलेच्छोः ।।५९॥ अज्ञा कष्टमिह ते प्रतिभामते मे ___ नामुत्रिक किमपि मोक्षकृते फलं स्यात् । पकाविलस्य किमु पहकजलेन शुद्धि __यद्वा कदापि सुरयैव सुराविलस्य ॥६॥ इस तप में एक पैर पर खड़े होकर भुजा ऊपर की ओर उठाकर रहना होता है और अपने आप गिरे हुए पत्तों आदि के तथा वायु के भक्षण से या महीनों तक उपवास करने आदि के द्वरा यह तप घोर है, तुम्हारे जैसों के लिए यह तप अगम्य है। यह बात सुनकर वह विद्वान् पावकुमार उस कमठमुनि से कहने लगा-मुझे तुम्हारा अपमान नहीं करना चाहिए। तुम स्वयं समय पाकर वास्तविकता पर विचार करोगे । नयमार्ग से विचारणा करने में चतुर बुद्धिमान लोग विचारणीय तत्व की यथार्थरूप से मीमांसा करते हैं। बिना जिनदर्शन धर्म की कसौटी का होना मुझे असंभव प्रतीत होता है । (५८) मिथ्यात्व, अव्रत और चार कषायों से युक्त तीन प्रकार की कायिक-बाचिक-मानसिक प्रवृत्ति से तापस लोग पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रस जीवों के प्रति हिंसा करते ही रहते हैं । (५९) तपस्या करने पर भी जो विज्ञानशून्य हृदयवाला है, जो जल के मन्थन से घो पाने की इच्छा रखता है और जो भुस्से के कटने से चावल पाने की इच्छा रखता है ऐसे तुम्हारे जैसे आदमी का वह सब कृत्य यहाँ निष्फल है ऐसा विद्वान कहते हैं। (६०) तुम्हारा कार्य अज्ञान के कारण (केवल) कष्टरूप है ऐसा मुझे • लगता है । परलोक में भी इसका कोई फल मोक्ष के लिए नहीं है। कीचड़ में सने हुए की क्या कीचड़ के जल से शुद्धि होती है ? अथवा क्या सुरा से लिप्त की सुरा से शुदिष होती है! आपके सिद्धान्त में भी कहा है: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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