SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 205
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपानामचरितमहाकाव्यः भवांश्चिदानन्दमयो भवेऽपि सम् न लिप्यते पातकपङ्कसङ्करैः । स्वधातुभेदात् कनकं हि निर्गतं पुनर्न तस्मिन् । सविधेऽनुषन्यते ॥४१॥ भवान् विरक्तोऽपि भवप्रसङ्गतो ममोपरोधेन कराहोऽधुना । विधीयतां साधुजनानुषङ्गता कृतार्थयत्यन्यजनं हि केवलम् ॥४२॥ उदीर्य विज्ञप्तिमिमां महीपतिः स्वतो व्यरंसीदथ सस्मितं जिनः । तथेति तद्वाक्यमुदारचेष्टितः प्रतीच्छति स्म स्वनियोगयोगवित् ॥४३॥ इत्थं निशम्य भगवद्वचनं महीय: प्रीतः परां मुदमसौ मनसाऽऽदधानः । लग्नं करग्रहमहाय विमृश्य शुद्धं कन्यां निजां स विततार वराय तस्मै ॥४४॥ सौख्यं तया स बुभुजे भगवानसक्तः सोऽन्येधुरिद्धमधिसौधमधिष्ठितश्च । सान्तःपुरः पुरमुदीक्ष्य गवाक्षाजालैः पुष्पोपहारसहितान् मनुजानपश्यत् ॥४५॥ (४१) हे प्रभो !, आप संसार में रहते हुए भी चिदानन्द स्वरूप हैं तथा सांसारिक पापपङ्क के सम्पर्क से लिप्त नहीं होते हैं। (जैसे) अपने साथ मिली हुई अन्य धातुओं से अलग हुआ स्वर्ण दुबारा समीप में रही उन धातुओं में मिल नहीं जाता । (४२) सांसारिक प्रसंग से विरक्त होते हुए भी मेरे आग्रह से अब आप पाणिग्रहण संस्कार कर ली क्योकि सज्जनों का सामीप्य निश्चितरूप से अन्य व्यक्तियों को कृतार्थ कर देता है। (४३) राजा प्रसेनजित् अपनी यह विज्ञप्ति निवेदन कर चुप हो गये । इसके पश्चात् अपने लग्न की नियति को देखने वाले और उदारचेष्टा वाले उन्होंने उनके (राजा के) वाक्य को (प्रस्ताव को) 'अच्छा ऐसा कहकर स्वीकार कर लिया। (४४) इस प्रकार जिनप्रभु के महनीय वचन सुनकर वह राजा प्रसेन खुश हुआ और मन में अतीव प्रसन्न हुआ। पाणिग्रहण के उत्सव के लिए शुद्ध लग्न (मुहूर्त) का शीघ्र ही निश्चय करके उसने अपनी कन्या उस उत्तम वर को अर्पित कर दी। (४५) उस पार्श्वकुमारप्रभु ने आसक्ति रहित होकर उस कन्या के साथ सुख भोगा। एक दिन प्रकाशित भवन पर स्थित उसने गोख की जाली से अन्तःपुर सहित नगर के उपर नजर डाली तो देखा कि मनुष्यलोग पुष्पोपहारयुक्त थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy