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पानसुम्बरसूरिविरचित रदण्छदोऽस्याः स्मितदीप्तिभासुरो यदि प्रवालः प्रतिबद्धहीरकः । तदोपमीयेत विजित्य निर्वृतः सुपक्वबिम्बं किल बिम्बतां गतम् ॥२६॥ अहो सुकण्ठयाः कलकण्ठनिस्वनो जिगाय नूनं परिवादिनीक्वणम् । कपोलयुग्मं कचबिम्बचुम्बितं शशाङ्कबिम्ब नु कलङ्कसङ्करम् ॥२७॥ प्रयस्य नासाग्रमभि स्थितं मुखं तदीयनिःश्वासमनल्पसौरभम् । स्फुटं समाघातुमिवोर्ध्वकन्धरं मृगेक्षणायाः शुकतुण्डसवि ॥२८॥ सरोरुहे स्वजनसजने यदा सहाजने तन्नयने तदा तुलाम् । नितान्तकर्णान्तगतागताञ्चिते परस्परस्पर्धितयेव बभ्रतुः ॥२९॥ श्रुती किल स्यन्दनयुग्ममेतयो विनिर्मितं यौवनकामयोः कृते । ध्रुवं तदीये वपुषि प्रसर्पतोविहारचाराय विधातृ रुणा ॥३०॥
(२६) मन्द मुस्कान के प्रकाश से प्रकाशित उसका अधरोष्ठ हीरे से जडे हुए मूंगे की तरह शोभित था और उपमानरूप सुपक्व बिम्बफल को जीत कर आया हो ऐसा लगता था । (२७) अहो !, उस सुकण्ठवालो की मधुर कण्ठध्वनि निश्चितरूप से वीणा के शब्द को जीतने वाली थी । बालों को लटों (जुल्फों) से चुम्बित उसके दोनों गाल कलङ्कयुक्त चन्द्रबिम्ब के समान लगते थे । (२८) प्रयास करके मुख के सामने रहा हुआ, उस अत्यन्त सुगन्धवाला निश्वास सूघने के लिए उत्कण्ठित हो ऐसा, मृगाक्षी की नासिका का अग्रभाग तोते की चोंच की शोभा को धारण करता था । (२९) कान के अत्यन्त अन्त तक आते-जाते उसके अञ्जनयुक्त दो नयन (कमलपुष्पवर्तुल के) व्यास के अत्यन्त अन्त तक आवागमन करते दो खञ्जनपक्षियों से युक्त दो कमलों के साथ स्पर्धा करते हुए शोभित थे । (३०) उसके शरीर में फैल रहे यौवन और काम इन दो के विहार करने के लिए ही सचमुच विधातारूप शिल्पी ने दो कान के रूप में दो रथ बनाये हों ऐसा मालूम होता है।
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