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________________ पद्मसुन्दरसूरिविरचित नी तनुः कृशाङ्ग्याः स्मरचापस मधुव्रतत्र समयी स्म भाव्यते । Jain Education International बिनीलरोमा लिरियं नु मेखला - मणेरिवार्डिचः किमु वा विजम्भते ॥१६॥ तदीयमध्यं नतनाभिसुन्दरं बभार भूषा सबलित्रयं पराम् । प्रक्लृप्त सोपानमिदं विनिर्ममे स्वमंन्जनायेव सुतीर्थमात्मभूः ॥१७॥ स्तनाविवास्याः परिणाहिमण्डलौ सुवर्णकुम्भौरतियौवनथियौ । सुचुचुक्राच्छादन पद्ममुद्रितौ विरेजतुर्निस्तल पीवराविमौ ॥१८॥ विसारितारघुतिहारहारिणौ स्तनौ नु तस्याः सुषमामवापतुः । सुरापगातीरयुगाश्रितस्य तौ रथाङ्गयुग्मस्य तु कुङ्कुमार्चितौ ॥१९॥ बभार शोभामधिकन्धरं श्रिता बिसारिहारावलिरुज्वला छविः । सुमेरुशृङ्गापतत्सुरापगा प्रवाहपूरस्य मनोहरस्रुवः ॥२०॥ (१६) अत्यन्त श्याम रोमावली वाली उसकी देहयष्टि कामदेव के धनुष की भ्रमरों वाली डोरी (ज्या) जैसी दिखाई देती थी । अथवा तो वह मेखला के मणि की ज्योति की तरह शोभित थी । (१७) झुकी हुई नाभि से सुन्दर, तीन लकीरों से युक्त उसका मध्य भाग परमशोभा को धारण करता था । मानों कामदेव ने अपने स्नान करने के लिये सीढ़ियों से युक्त सुन्दरतीर्थ का निर्माण किया हो । (१८) विस्तृत मण्डलाकार (गोलाकार), सुवर्णघट के समान, रति और यौवन की शोभा वाले उसके दोनों स्तन सुन्दर चुचुकरूप आच्छादन वाले बन्द कमल के समान गोल और स्थूल शोभित थे । (१९) विस्तृत उज्ज्वल कान्तिवाले हार से मनोहर, कुंकुम से अर्चित उसके वे दोनों स्तन देवनदी गङ्गा के दोनों तट पर स्थित चकवा - चकवी के जोड़े के सौन्दर्य को प्राप्त थे । ( २० ) मनोहर भ्रुकुटी वाली उस कन्या की विस्तृत हारपङ्क्ति जो बड़ी ही उज्ज्वल थी तथा ग्रीवा का आश्रय ले रही थी वह सुमेरु पर्वत की चोटी के अग्रभाग से गिरती हुई देवनदी गङ्गा के अजल प्रवाह स्रोत की सुन्दर शोभा को धारण करती थी । ८३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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