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________________ ७८ श्री पार्श्वनाथचरितमहाकाव्य अलानं विगणय्य गण्डविगलदानाम्बुपूरो गजः प्रोदामश्चलकणत लत नः पांशुकरं व्याकिन् । भजन्तं मागतोऽपि सविध नाक्रामति त्वत्पदा - क्त भक्तमसौ कदापि भगवन्नssघातुकोपि स्फुटम् || १८७ कटिकोटिविपाटनलम्प्ट प्रखरता विलसन्नखरो हरिः Jain Education International तव पदस्मृतिमात्रपरं नरं न समुपैति रुष ऽप्यरुणेक्षणः कृत कृणामणिदीप्त रुचिः फणी गरलमेष महोबणमुद्गिरन् । प्रकुपितस्तव पादयुगाश्रितं किमपि भीषयते न भयङ्करः प्रलयवह्निरिव ज्वलितोऽर्चिषा समधिके मसमृद्धिसमेधितः । तब पदस्मृतिशीतजलाप्लुतं न च पराभवति ज्वलनः क्वचित् द्रुघणधन्वशरासिपराहत द्विग्दपत्तिभटाश्वचमूत्करे समरमूर्धनि ते विजय श्रयं ।। १८८ ।। ॥ १८९॥ ॥ १९०॥ भुवि लसन्त इह त्वदुपासकाः ॥१९१॥ (१८७) गण्डस्थल से झरते हुए दानवारि के पूर गला, चञ्चलताल से चपल, धूलि के कगों को बिखेरता हुआ, अपने बन्धन को भी जोड़कर उन पेड़ को तोड़ता हुआ मस्तीवाला हाथी आकर भी आपके उपर आक्रमण नहीं करता किन्तु आपके पैर को छूता है । वह घातक होते हुए भी कभी आपका भक्त रहा होगा यह निश्चित हैं । (१८८) क्रोध से रक्तनेत्र, करोड़ों हाथिओं के गण्डस्थल के विदारण में दक्ष, तेज नाखुनों वाला सिंह आपके स्मरण में लगे हुए मानव के पास नहीं आता । (१८९) अपने फण लगी हुई मणि से दीप्त कान्ति वाला, भयंकर जहरीला क्रोधित सर्प भी आपके चरण युगल में आश्रित व्यक्ति को डराने में समर्थ नहीं है । ( १९० ) प्रलयकालीन वह्नि की तरह अपनी ज्वालाओं से जलती हुई, अधिक इन्धन से अत्यन्त बढ़ी हुई अग्नि भी आपके चरण के स्मरण रूप शीतल जल से आप्लावित व्यक्ति का पराभव कहीं पर भी नहीं कर सकती । ( १९१) हे भगवन् !, दुघण, धनुष, बाण, खड्ग आदि से शत्रु के मारे हुए हाथ, पदातिसेना, योद्धा व अश्वादि सेना वाले इस समराङ्गण में आपकी विजयश्री को देखकर आपके उपा सक पृथ्वी पर अलंकृत हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002632
Book TitleParshvanatha Charita Mahakavya
Original Sutra AuthorPadmasundar
AuthorKshama Munshi
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1986
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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