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श्री पार्श्वनाथ चरितमहाकाव्य
अन्यदा भूषणं पुंसः क्षमा लज्जेव योषितः । पराक्रमः परिभवे वैजात्यं सुरतेष्विव
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॥९६॥
यावज्जीवितकालोऽस्ति यावद भाग्यानुकूलता । तावत् प्रतापमुत्साहं न त्यजन्त्युदयार्थिनः ॥९७॥ बुद्धि शक्ति तथोपायं जयं च गुणसंयुतम् । तथा प्रकृतिभेदांश्च विज्ञाय ज्ञानवान् नृपः ॥ ९८|| दुर्मदानां विपक्षाणां वधायोद्योगमाचरेत् । अलसो हि निरुद्योगो नरो बाध्येत शत्रुभिः
॥ ९९ ॥
स्वाभाविकी वैनयिकी द्विधा बुद्धिर्नृणां भवेत् । आद्या भाग्योदयोद्भूता गुरोर्विनयजाऽपरा ॥ १०० ॥ मन्त्रत्साहप्रभुत्वोत्थाः शक्तयस्तिस्त्र ईरिताः । मन्त्रशाक्तनृपाणां सा मन्त्रिणा मन्त्रयेद् रहः ॥ १०१ ॥
मन्त्रः स स्यादषट्कर्णस्तृतीय. देरगोचरः । स च बुद्धिमता कार्यः स्त्री धूर्त शिशुभिर्न च । १०२ ।। क्र्य स्यात् संग्रामादौ प्रगल्भता । ऊजस्त्वं शौर्य च निर्भयत्वं पर भवे
उत्साहश
॥ १०३ ॥
(९६) अन्य समय पर क्षमा पुरुष का भूषण है जैसे अन्य समय पर लज्जा युवतीजन का भूषण है, ( किन्तु ) युद्ध में तो पुरुष का भूषण पराक्रम है जैसे सुरतक्रीड़ा में युबतीजन का भूषण धृष्टता है । ( ९७ ) जब तक यह जीवनकाल है और जब तक भाग्य की अनुकूलता है तब तक उन्नति की इच्छा रखने वाले राजालोग अपने प्रताप व उत्साह को नहीं छोड़ते हैं । ( ९८-९९ ) यथासंभव बुद्धि, शक्ति, उपार, गुण, जय तथा प्रकृतिभेद को समझकर ज्ञानवान् राजा दुरभिमानी शत्रुओं के वध के लिए इन्हें व्यवहार में लायें । आलसी एवं निरुद्यमी व्यक्ति शत्रुओं द्वारा पीड़ित हो जाता है । (१००) मनुष्यों की वृद्धि दो प्रकार की होती है - स्वाभाविकी एवं वैनयिकी पहली भग्योदय से उत्पन्न होतो है और दूसरी गुरु के विनय से उत्पन्न होतो है । ( १०१ ) राजनीति में प्रभुत्व, उत्साह व मन्त्र से जन्य तानशक्तियाँ कही गई हैं। राजाओं की मन्त्रशक्ति एकान्त में मन्त्रिगण के साथ मन्त्रणा की जाय, यही है । (१०२) तृतीय आदि व्यक्ति को अगोचर और छः कानों का जिसमें प्रयोग
हुआवेगा बुद्धिमान करें (किन्तु ) स्त्री, धूत व बालक के साथ ( वैसी मन्त्रणा) न करें । (१०३) संग्राम आदि में जहाँ प्रगल्भता, बलवत्ता, शौर्य और पराभव होने पर भी निर्भयता रहती है, वह उत्साहशक्ति है ।
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