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श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य
जन्मस्नानाम्बुना पूता जिनस्य ननु निम्नगाः । जनो हि मज्जनादाशु शुद्धः स्यादन्यथा कथम् ॥१५३॥ सुमेरो रत्नकूटे तु विचित्रमणिमण्डिते । प्रसर्पत्पयसां पूरः सुरचापश्रियं दधौ ॥१५४॥ अधिमेरु परिस्फीतः क्षीराब्धिपयसां चयः । परिधापयति स्मेव दुकूलैः पाण्डुरैरमुम् ॥१५५॥ स्फाटिको राजतो वाऽयं हिमाद्रिा सुधागिरिः । तय॑ते स्म सुरस्त्रीभिर्मेरुः स्नात्राम्बुसम्प्लुतः ॥१५६॥ शीकराः सर्वदिग्व्याप्ता मुक्ताभाश्चोत्पतिष्णवः ।। केचिद् दधुविभोमूर्ध्नि शुभ्रभामण्डलश्रियम् ॥१५७॥ शङ्ख-कुन्देन्दु-डिण्डीर-हार-हीरक-सन्निभाः । प्रासरन् पयसां वाहाः कीर्तिपूरा विभोरिव ॥१५८॥ स्नानाम्भसा प्रवाहौधे हंसो हंस इवाऽऽबभौ । तरन् मन्थरया गत्या जडिमानं परं गतः ॥१५९॥ सवनाम्बुनिमग्नास्तास्तारास्तारतरद्युतः । गलज्जललबा व्योम्नि बभुः करकसन्निभाः ॥१६॥
(९५३) नदियाँ निश्चितरूप से जिनदेव के जन्म के स्नानजल से मानों पवित्र हो गई। नहीं तो (उनमें) स्नान करने से लोग शीघ्र कैसे शुद्ध हो सकते हैं ? (१५४) सुमेरु पर्वत के विचित्र मणिमण्डित रत्नशिखर पर फैलता हुआ जल का वेग ईन्द्रधनुष की शोभा को धारण करता था। (१५५) सुमेरुपर्वत पर विस्तृत फैला हुआ क्षीरसागर के जल का समुदाय मानों उन जिन भगवान को सफेद रेशमी दुपट्टों से ढक देता था । (१५६) 'यह स्फटिक से बना है या रजत से' 'यह हिमगिरि है या सुधागिरि ?'-ऐसी आशंका देवङ्गनाओं को स्नान के जल में डूबे मेरुपर्वत के विषय में हुई । (१५७) ऊपर की और उठती हुई, सभी दिशाओं में व्याप्त जल की बूंदे जो मोती के समान चमकती थीं. भगवान् जिन के मस्तक पर शुभ्र मण्डल की शोभा को धारण करती थीं। (१५८) शंख, कुन्दपुष्प, चन्द्र, हार और हीरे के समान ये जल के प्रवाह विभु जिनदेव की कीर्ति की बाढ की तरह फैल गये । (१५९) स्नान के जल के प्रवाहसमुदाय में सूर्य हंसपक्षी की तरह शोभित था। तथा धीमी गति से तैरता हुआ अत्यन्त जडभाव को प्राप्त हो गया (उण्डा हो गया) । (१६०) स्नात्रजल में इबे गिरते हुए पानी को बूदवाले और अत्यन्त उज्ज्वल प्रकाशवाले तारे आकाश में ओलों के सदृश चमकते थे।
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